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________________ कर दिया। ___ "जातिअंधेजाव अंधारूवे" में पठित "जाव-यावत्" पद से "जातिमूए, जातिबहिरे, जातिपंगुले" इत्यादि पूर्व प्रतिपादित पदों का ग्रहण करना, जो कि मृगापुत्र के विशेषण रूप हैं। तथा "हव्वमागए" इस वाक्य में उल्लेख किए गए "हव्व" पद का आचार्य अभयदेवसूरि शीघ्र अर्थ करते हैं, जैसे कि-"हव्वं त्ति शीघ्रम्"। परन्तु उपासकदसांग की व्याख्या में श्रद्धेय श्री घासी लाल जी महाराज ने उसका "अकस्मात्" अर्थ किया है और लिखा है कि मगध देश में आज भी "हव्व-हव्य" शब्द अकस्मात् (अचानक) अर्थ में प्रसिद्ध है। हव्यम्अकस्मात्, हव्यमित्ययं शब्दोऽद्यापि मागधे अकस्मादर्थे प्रसिद्धः।(पृष्ठ 114) स्वकीय गुप्त वृत्तान्त को श्री गौतमस्वामी द्वारा उद्घाटित हो जाने से चकित हुई मृगादेवी का गौतम स्वामी से किसी अतिशय ज्ञानी वा तपस्वी सम्बन्धी प्रश्न भी रहस्य पूर्ण है। नितान्त गुप्त अथवा अन्त:करण में रही हुई बात को यथार्थ रूप में प्रकट करना, विशिष्ट ज्ञान पर ही निर्भर करता है, विशिष्ट ज्ञान के धारक मुनिजनों के बिना -जिन की आत्मज्योति विशिष्ट प्रकार के आवरणों से अनाछन्न होकर पूर्णरूपेण विकास को प्राप्त कर चुकी होदूसरा कोई व्यक्ति अन्त:करण में छिपी हुई बात को प्रकट नहीं कर सकता। अतएव मृगादेवी ने भगवान् गौतम से जो कुछ पूछा है उसमें यही भाव छिपा हुआ है। मृगादेवी के उक्त प्रश्न का गौतमस्वामी ने जो उत्तर दिया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं- मूल-तते णं भगवं गोतमे मियं देवि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! मम धम्मायरिए समणे भगवं जाव, ततो णं अहं जाणामि।जावंच णं मियादेवी भगवया गोतमेणं सद्धिं एयमटुं संलवति तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला ज़ाया यावि होत्था। तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासीतुब्भे णं भंते! इह चेव चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारयं उवदंसेमि त्ति कटु जेणेव भत्तपाण-घरए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वत्थपरियट्टं करेति, करेत्ता कट्ठ-सगडियं गेण्हति 2 त्ता विपुलस्स असणपाण-खातिम-सातिमस्स प्रश्न-घर आदि में अकेली स्त्री के साथ खड़ा होना और उस के साथ संलाप करना शास्त्रों में निषिद्ध' है। प्रस्तुत कथासंदर्भ में राजकुमार मृगापुत्र को देखने के निमित्त गए भगवान गौतम स्वामी का महारानी मृगादेवी से वार्तालाप करने का वृत्तान्त स्पष्ट ही है। क्या यह शास्त्रीय मर्यादा की उपेक्षा नहीं ? 1. समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे। एगो एगित्थिए सद्धिं, नेव चिढे न संलवे // 26 // (उत्तराध्ययन-सूत्र, अ० 1) प्रथम श्रुतस्कंध ]. श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [141
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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