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________________ देव गौतम स्वामी ने भगवान् से उस के पूर्वभव को जानने की इच्छा प्रकट की। इस के उत्तर में भगवान् ने कहा-गौतम ! कौशाम्बी नाम की एक विशाल नगरी थी। वहां धनपाल नाम का एक धार्मिक राजा था। उस का संयमशील साधुजनों पर बड़ा अनुराग था। एक दिन उस के यहां वैश्रमण नाम के तपस्वी मुनि भिक्षा के निमित्त पधारे। धनपाल नरेश ने उन को विधिपूर्वक वन्दन किया और अपने हाथ से नितान्त श्रद्धापूरित हृदय से निर्दोष प्रासुक आहार का दान दिया। उस के प्रभाव से उस ने मनुष्य आयु का बन्ध कर के उस भव की आयु को पूर्ण कर यहां आकर सुवासव के रूप में जन्म लिया। इस के आगे का प्रभु वीर द्वारा वर्णित उस का सारा जीवनवृत्तान्त अर्थात् जन्म से ले कर मोक्षपर्यन्त का सारा इतिवृत्त सुबाहुकुमार की भाँति जान लेना चाहिए। इस में इतनी विशेषता है कि वह उसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त हुआ, इत्यादि वर्णन करने के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन ' किया है। प्रस्तुत अध्ययन में चरित्रनायक के नाम, जन्मभूमि, उद्यान, माता-पिता, परिणीता स्त्रियां तथा पूर्वभवसम्बन्धी नाम और जन्मभूमि तथा प्रतिलाभित मुनिराज आदि का विभिन्नतासूचक निर्देश कर दिया गया है और अवशिष्ट वृत्तान्त को प्रथम अध्ययन के समान समझ लेने की सूचना कर दी है। -नंदणं वणं-इस पाठ के स्थान में कहीं-मणोरमं-ऐसा पाठ भी है। तथा उत्क्षेप और निक्षेप शब्दों का अर्थ सम्बन्धी ऊहापोह पीछे कर चुके हैं। प्रस्तुत में उत्क्षेप से-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं तइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते , चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं के अटे पण्णत्ते ?-अर्थात् यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यदि भदन्त ! सुखविपाक के तृतीय अध्ययन का यह अर्थ फरमाया है तो भगवन् ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ? इन भावों का, तथा निक्षेप पद-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते। त्ति बेमि-अर्थात् हे जम्बू ! यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के चतुर्थ अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है-इन भावों का परिचायक है। ___-पाणिग्गहणं जाव पुव्वभवे-यहां पठित जाव-यावत् पद-सुवासवकुमार का. अपने महलों में भद्राप्रमुख 500 राजकुमारियों के साथ आनंदोपभोग करना, भगवान् महावीर 970 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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