________________ स्वामी का विजयपुर नगर में पधारना। राजा, सुवासवकुमार तथा नागरिकों का धर्मोपदेश सुनने के लिए प्रभु के चरणों में उपस्थित होना, धर्मकथा श्रवण करने के अनन्तर राजा तथा जनता के चले जाने पर सुवासवकुमार का साधुधर्म को ग्रहण करने में अपनी असमर्थता बताते हुए श्रावकधर्म को ग्रहण करना और वन्दना तथा नमस्कार करने के अनन्तर वापिस अपने नगर को चले जाना, आदि भावों का तथा सुवासवकुमार के पूर्वजन्मसम्बन्धी वृत्तान्त को पूछना, भगवान् का उसे सुनाना, अन्त में विजयपुर में अवतरित होना, इन भावों का परिचायक है। __ -उप्पन्ने जाव सिद्धे-यहां पठित जाव-यावत् पद सुवासवकुमार के सम्बन्ध में भगवान् से गौतम का "यह साधु बनेगा या नहीं" ऐसा प्रश्न पूछना, भगवान् का-"हां, बनेगा" ऐसा उत्तर देना। तदनन्तर भगवान् का विहार कर जाना, इधर सुवासवकुमार का तेलापौषध में साधु होने का निश्चय करना, अन्त में भगवान महावीर स्वामी के चरणों में दीक्षित होना तथा संयमाराधन द्वारा अधिकाधिक आत्मविकास करके केवलज्ञान प्राप्त करना, आदि भावों का परिचायक है। सुबाहुकुमार और सुवासवकुमार के जीवन-वृत्तान्त में इतना अन्तर है कि सुबाहुकुमार पहले देवलोक से मनुष्य भव करके इसी भाँति अन्य अनेकों भव करके अन्तं में महाविदेह क्षेत्र में दीक्षित हो सिद्ध बनेगा, जब कि श्री सुवासव कुमार ने इसी जन्म में सिद्ध पद को उपलब्ध कर लिया। . प्रस्तुत अध्ययन भी सुपात्रदान के महत्त्व का बोधक है। इस से भी उस की महिमा प्रदर्शित होती है। लोक में जैसे-नदियों में गंगा, पशुओं में गाय और पक्षियों में गरुड़ तथा वन्य जीवों में सिंह आदि महान् और प्रधान माना जाता है, उसी प्रकार सभी प्रकार के दानों में सुपात्रदान सर्वोत्तम, महान् तथा प्रधान होता है। तब भावपुरस्सर किया गया सुपात्रदान कितना उत्तम फल देता है, यह इस अध्ययन से स्पष्ट ही है। // चतुर्थ अध्ययन सम्पूर्ण॥ द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [971