________________ अह पंचमं अज्झयणं अथ पञ्चम अध्याय भारतीय धार्मिक वाङ्मय में दानधर्म का बड़ा महत्त्व पाया जाता है। दान एक सीढ़ी है जो मानव प्राणी को ऊर्ध्वलोक तक पहुँचा देता है। जिस तरह मकान के ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी की आवश्यकता होती है, ठीक उसी तरह मुक्तिरूप विशाल भवन पर आरोहण करने के लिए भी सीढ़ी की आवश्यकता है। वह सीढ़ी शास्त्रीय परिभाषा में दान के नाम से विख्यात है। दान के आश्रयण से मनुष्य ऊर्ध्वगति प्राप्त कर सकता है, परन्तु जिस प्रकार सीढ़ी के द्वारा ऊपर चढ़ने वाले को भी सावधान रहना पड़ता है, ठीक उसी भाँति मोक्ष के सोपानरूप इस दान के विषय में भी बड़ी सावधानी की ज़रूरत है। वह सावधानी दो.प्रकार की होती है। एक पात्रापात्र सम्बन्धी तथा दूसरी आवश्यकता और अनावश्यकता सम्बन्धी। पात्र की विचारणा में दाता को पहले यह देखना होता है कि जिस को मैं वस्तु दे रहा हूं, वह उस का अधिकारी भी है या कि नहीं। दूसरे शब्दों में-मेरी दी हुई वस्तु का यहां सदुपयोग होगा या दुरुपयोग। पात्र में डाली हुई वस्तु जैसे अच्छा फल देने वाली होती है वैसे कुपात्र में डालने से उस का विपरीत फल भी होता है। इसी प्रकार ग्रहण करने वाले को उस की आवश्यकता भी है या नहीं इस का विचार करना भी ज़रूरी है। जैसे समुद्र में वर्षण और तृप्त को भोजन ये दोनों अनावश्यक होने से निष्फल होते हैं, उसी तरह बिना आवश्यकता के दिया गया पदार्थ भी फलप्रद नहीं होता। सारांश यह है कि जहां दाता और प्रतिग्राही-ग्रहण करने वाला दोनों ही शुद्ध हों वहां पर ही देय वस्तु से समुचित लाभ हो सकता है, अन्यथा नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में दान के महत्त्वप्रदर्शनार्थ जिस जिनदास नामक भावुक व्यक्ति का जीवन अंकित हुआ है, उस में दाता, प्रतिग्रहीता और देय वस्तु तीनों ही निर्दोष हैं, अतएव वहां फल भी समुचित ही हुआ। प्रस्तुत अध्ययन के पदार्थ का उपक्रम निम्नोक्त है मूल-पञ्चमस्स उक्खेवो। सोगन्धिया णगरी। णीलासोगे उज्जाणे। 972 ] श्री विपाक सूत्रम् / पञ्चम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध