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________________ जैसा पालन-पोषण हो रहा था, आज वह माता-पिता से विहीन-रहित धनसम्पत्ति से शून्य हो जाने के अतिरिक्त घर से भी निकाल दिया गया है। उसके लिए अब वाणिजग्राम नगर की गलियों, बाजारों तथा इसी प्रकार के स्थानों में घूमने-फिरने और जहां-तहां पड़े रहने के सिवा और कोई चारा नहीं। उसके ऊपर अब किसी का अंकुश नहीं रहा, वह जिधर जी चाहे जाता है, जहां मनचाहे रहता है, दुर्दैववशात् उसे साथी भी ऐसे ही मिल गए। उन के सहवास से वह सर्वथा स्वेच्छाचारी और स्वच्छन्दमति हो गया। उसका अधिक निवास अब या तो जूएखानों में या शराबखानों में अथवा वेश्या के घरों में होने लगा। सारांश यह है कि निरंकुशता के कारण वह चोरी करने, जूआ खेलने, शराब पीने और परस्त्रीगमन आदि के कुव्यसनों में आसक्त हो गया। "-विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः-" अर्थात् विवेकहीन व्यक्तियों के पतित हो जाने के सैंकड़ों मार्ग हैं-इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार दुर्दैववशात् उज्झितक कुमार का किसी समय वाणिजग्राम नगर की सुप्रसिद्ध वेश्या कामध्वजा से स्नेहसम्बन्ध स्थापित हो गया। उस के कारण वह मनुष्य-सम्बन्धी विषय-भोगों का पर्याप्त-रूप से उपभोग करता हुआ जीवन व्यतीत करने लगा। "अणोहट्टए" पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है___ "यो बलात् हस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमानं निवारयति सोऽपघट्टकस्तदभावादनपघट्टकः" अर्थात् जो किसी को बलपूर्वक हाथ आदि से पकड़ कर किसी भी कार्य-विशेष से रोक देता है वह अपघट्टक-निवारक कहलाता है और इसके विपरीत जिस का कोई अपघट्टक-रोकने वाला न हो उसे अनपघट्टक कहते हैं। इस प्रकार का व्यक्ति ही कुसंगदोष से स्वच्छन्दमति और स्वेच्छाचारी हो जाता है। "वेसदारप्पसंगी"१ इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं, जैसे कि-(१) वेश्यागामी और परदारगामी तथा (2) वेश्या रूप स्त्रियों के साथ अनुचित सम्बन्ध रखने वाला। प्रस्तुत सूत्र में वेश्या और दारा ये दो शब्द निर्दिष्ट हुए हैं। इन में वेश्या अर्थ है पण्यस्त्री अर्थात् खरीदी जाने वाली बाजारू औरत। और दारा वह है जिसका विधि के अनुसार पाणिग्रहण किया गया हो। दारा शब्द की शास्त्रीय व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है "दारयन्ति पतिसम्बन्धेन पितृभ्रात्रादिस्नेहं भिन्दन्तीति दाराः" अर्थात् पति के साथ 1. "-वेसदारप्पसंगी-"त्ति वेश्याप्रसंगी कलत्रप्रसंगी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्तत्प्रसंगीति वृत्तिकारः। 302 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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