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________________ सम्बन्ध जोड़कर जो पिता-भ्राता आदि स्नेह का दारण-विच्छेद करती है वह दारा कही जाती है। दूसरे की स्त्री को पर-स्त्री कहते हैं। साहित्य-ग्रन्थों में स्वकीया, परकीया और सामान्या ये तीन भेद नायिका-स्त्री के किए गए हैं। इन में स्वकीया स्वस्त्री का नाम है, पर-स्त्री को परकीया और वेश्या को सामान्या कहा है। वेश्या न तो स्वस्त्री होती है और न परस्त्री, किन्तु सर्व-भोग्या होने से वह सामान्या कहलाती है। अतः वेश्या और परस्त्री दोनों ही भिन्न-भिन्न हैं / वेश्या का कोई एक स्वामी-मालिक या पति नहीं होता जब कि पर-स्त्री एक नियत स्वामी वाली होती है। इसी विभिन्नता को लेकर सूत्रकार ने "वेसदारप्पसंगी" इसमें दोनों का पृथक् रूप से निर्देश किया है जो कि उचित ही है। "भोगभोगाई" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में "भोजनं भोगः-परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा शब्दादयो, भोगार्हा भोगा भोग-भोगा:-मनोज्ञाः शब्दादय इत्यर्थः-" इस प्रकार है, अर्थात्-भोग शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि (1) परिभोग करना (2) जिन शब्दादि पदार्थों का परिभोग किया जाए वे शब्द, रूप आदि भोग कहलाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में भोगभोग शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिस में से प्रथम के भोग शब्द का अर्थ है- भोगाई-भोगयोग्य और दूसरे भोग शब्द का "-शब्द रूप आदि-" यह अर्थ है। तात्पर्य यह है कि भोगभोग शब्द मनोज्ञ-सुन्दर शब्दादि का परिचायक है। अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में मित्र राजा की महारानी के योनि-शूल का वर्णन करते हुए उज्झितक कुमार की अग्रिम जीवनी का वर्णन करते हैं मूल-ततेणं तस्स मित्तस्स रण्णो अन्नया कयाइ सिरीए देवीए जोणिसूले पाउब्भूते यावि होत्था। नो संचाएति विजयमित्ते राया सिरीए देवीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए। तते णं से विजयमित्ते राया अन्नया कयाइ उज्झिययं दारयंकामज्झयाए गणियाए गेहाओ णिच्छुभावेइ २.त्ता कामज्झयं गणियं अब्भिंतरियं ठावेति 2 त्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं उरालाइं जाव' विहरति।तते णं से उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाए गेहातो निच्छुब्भमाणे समाणे कामज्झयाए गणियाए मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने अन्नत्थ कत्थइ सुइंच रतिं च धितिं च अविंदमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तदट्ठोवउत्ते तयप्पियकरणे तब्भावणाभाविते कामज्झयाए . 1. "जाव-यावत्" पद से "माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [303
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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