________________ प्रमाण काल (जिसके द्वारा नारकी और देवता की आयु का माप किया जाता है) की सागरोपम संज्ञा है। . .. "ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता" इस वाक्य में प्रयुक्त हुआ "अणंतरं" यह पद् सूचित करता है कि एकादि का जीव पहली नरक से निकल कर सीधा मृगादेवी की ही कुक्षि में आया, अर्थात् नरक से निकल कर मार्ग में उसने कहीं अन्यत्र जन्म धारण नहीं किया। नारक जीवन की स्थिति पूरी करने के अनन्तर ही एकादि का जीव मृगादेवी के गर्भ में पुत्ररूप से अवतरित हुआ अर्थात् मृगादेवी के गर्भ में आया, उसके गर्भ में आते ही क्या हुआ, अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हुए प्रतिपादन करते हैं। मूल-तते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पाउब्भूता, उज्जला जाव जलंता। जप्पभितिं च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिंसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभितिं चणं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया यावि होत्था। ____ छाया-ततस्तस्या मृगाया देव्याः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता, उज्वला यावज्वलंती। यत्प्रभृति च मृगापुत्रो दारको मृगाया देव्याः कुक्षौ गर्भतया उपपन्नः तत्प्रभृति च मृगादेवी विजयस्य क्षत्रियस्य अनिष्टा, अकान्ता, अप्रिया, अमनोज्ञा, अमनोमा जाता चाप्यभवत्। / पदार्थ-तते णं-तदनन्तर / तीसे-उस।मियाए देवीए-मृगादेवी के।सरीरे-शरीर में। उज्जलाउत्कट। जाव-यावत्। जलंता-जाज्वल्यमान-अति तीव्र / वेयणा-वेदना। पाउब्भूता-प्रादुर्भूत-उत्पन्न हुई। णं-वाक्यालंकारार्थ में जानना / जप्पभितिं च णं-जब से। मियापुत्ते-मृगापुत्र नामक। दारए-बालक। मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसि-कुक्षि-उदर में। गब्भत्ताए-गर्भरूप में। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तप्पभिति-तब से लेकर। च णं-च समुच्चयार्थ में और णं-वाक्यालंकारार्थ में है। मियादेवी-मृगादेवी। विजयस्स खत्तियस्स-विजय नामक क्षत्रिय को। अणिट्ठा-अनिष्ट। अकंता-सौन्दर्य रहित। अप्पियाअप्रिय / अमणुण्णा-अमनोज्ञ-असुन्दर।अमणामा-मन से उतरी हुई। जाया यावि होत्था-हो गई अर्थात् उसे अप्रिय लगने लगी। मूलार्थ-तदनन्तर उस मृगादेवी के शरीर में उज्जवल यावत् ज्वलन्त-उत्कट एवं जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ।जब से मृगापुत्र नामक बालक मृगादेवी के उदर में गर्भ रूप से उत्पन्न हुआ तब से लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, असुन्दर, मन को न भाने वाली-मन से उतरी हुई सी लगने लगी। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [187