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________________ प्रमाद नहीं किया। सुबाहुकुमार अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन पुण्य तिथियों में पौषधोपवासव्रत करता था और धर्मध्यान के द्वारा आत्मचिन्तन में निमग्न हो कर गृहस्थधर्म का पालन करता हुआ समय व्यतीत कर रहा था। -पोसह-यह प्राकृत भाषा,का शब्द है। इस की संस्कृत छाया 'पोषध होती है। पौषधशब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "-पोषणं पोषः-पुष्टिरित्यर्थः तं धत्ते गृह्णाति इति पोषधम्" इस प्रकार है। अर्थात् जिस से आध्यात्मिक विकास को पोषण-पुष्टि मिले उसे पोषध कहते हैं। यह श्रावक का एक धार्मिक कृत्यविशेष है, जो कि पौषधशाला में जाकर प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में किया जाता है। इस में सर्व प्रकार के सावध व्यापार के त्याग से लेकर मुनियों की भाँति सारा समय प्रमादरहित हो कर धर्मध्यान करते हुए व्यतीत करना होता है। इस में आहार का त्याग करने के अतिरिक्त शरीर के शृंगार तथा अन्य सभी प्रकार के लौकिक व्यवहार या व्यापार का भी नियमित समय तक परित्याग करना होता है। इस व्रत की सारी विधि पौषधशाला या किसी पौषधोपयोगी स्थान पर की जा सकती है। इस के अतिरिक्त पौषधव्रत शास्त्रों में १-आहारपौषध, २-शरीरपौषध, ३-ब्रह्मचर्यपौषध और ४-अव्यवहारपौषध या अव्यापारपौषध, इन भेदों से चार प्रकार का वर्णन किया गया है, ये चारों भी सर्व और देश भेद से दो-दो प्रकार के कहें हैं। इस तरह सब मिला कर पौषध के आठ भेद हो जाते हैं। इन आठों भेदों का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह पीछे किया जा चुका है। . सामान्यरूप से तो इस के दो ही भेद हैं-देशपौषध और सर्वपौषध / देशपौषध का ग्रहण दसवें व्रत में और ग्यारहवें व्रत में सर्वपौषध का ग्रहण होता है। पौषध लेने की जो विधि है उस में ऐसा ही उल्लेख पाया जाता है। सर्वपोषध में पूरे आठ प्रहर के लिए प्रत्याख्यान होता 1. पोषध शब्द से व्याकरण के "प्रज्ञादिभ्यश्च"।५-४-३६ (सिद्धान्त कौमुदी) इस सूत्र से स्वार्थ में अण्प्रत्यय करने से पौषध शब्द भी निष्पन्न होता है। आज पौषध शब्द का ही अधिक प्रयोग मिलता है। इसीलिए हमने इस का अधिक आश्रयण किया है। . 2. पोसहोववासे चउव्विहे पण्णत्तेतंजहा-आहारपोसहे, सरीरपोसहे, बम्भपोसहे, अववहारपोसहे। 3. पौषध का सूत्रसम्मत पाठ इस प्रकार है एकारसमे पडिपुण्णे पोसहोववासवए सव्वओ असणं-पाण-खाइम-साइम-पच्चक्खाणं, अबम्भ-पच्चक्खाणं, मणिसुवण्णाइपचक्खाणं मालावन्नगविलेवणाइपच्चक्खाणं, सत्थमुसलवावाराइसावज्जजोगपच्चक्खाणं जाव अहोरत्तं पजुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। इस पाठ में चारों प्रकार के आहार का, सब प्रकार की शारीरिक विभूषा का तथा सर्व प्रकार के मैथुन एवं समस्त सावद्य व्यापार का अहोरात्रपर्यन्त त्याग कर देने का विधान किया गया है। प्रात:काल सूर्योदय से लेकर अगले दिन सूर्योदय तक का जितना काल है वह अहोरात्र काल माना जाता है। दूसरे शब्दों में पूरे आठ प्रहर तक आहार, शरीरविभूषा, मैथुन तथा व्यापार का सर्वथा त्याग सर्वपौषध कहलाता है। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [909
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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