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________________ है। इस से कम काल का पौषध सर्वपौषध नहीं कहलाता। सुबाहुकुमार का पौषध सर्वपौषध ' था और वह उसने पौषधशाला में किया था और वहीं पर इस ने अष्टमभक्त-तेला व्रत सम्पन्न किया था। यह बात मूलपाठ से स्पष्ट सिद्ध हो जाती है। तात्पर्य यह है कि श्री सुबाहुकुमार ने लगातार तीन पौषध करने का नियम ग्रहण किया। परन्तु इतना ध्यान रहे कि पौषधत्रय करने से पूर्व उस ने एकाशन किया तथा उस की समाप्ति पर भी एकाशन किया। इस भाँति उस ने आठ भोजनों का त्याग किया। कारण कि पौषध में तो मात्र दिन-रात के लिए आहार का त्याग होता है। दैनिक भोजन द्विसंख्यक होने से पौषधत्रय में छ: भोजनों का त्याग फलित होता है। सूत्रकार स्वयं ही-पोसहिए-इस विशेषण के साथ-अट्ठमभत्तिए-यह विशेषण दे कर उस के आठ भोजनों का त्याग संसूचित कर रहे हैं। प्रश्न-पौषध और उपवास इन दोनों में क्या भिन्नता है ? उत्तर-धर्म को पुष्ट करने वाले नियमविशेष का धारण करना पौषध कहलाता है। पौषध के भेदोपभेदों का वर्णन पीछे किया जा चुका है। और उपवास मात्र त्रिविध या चतुर्विध आहार के त्याग का नाम है। तथा उपवासपूर्वक किया जाने वाला पौषधव्रत पौषधोपवास कहलाता है। पौषधव्रत में उपवास अवश्यंभावी है जब कि उपवास में पौषधव्रत का आचरण आवश्यक नहीं। अथवा पौषधोपवास एक ही शब्द है। पौषधव्रत में उपवास-अवस्थिति पौषधोपवास कहलाता है। पौषधशाला-जहां बैठ कर पौषधव्रत किया जाता है, उसे पौषधशाला-कहते हैं / जैसे भोजन करने के स्थान को भोजनशाला, पढ़ने के स्थान को पाठशाला कहते हैं; उसी भाँति पौषधशाला के सम्बन्ध में भी जान लेना चाहिए। मलमूत्रादि परित्याग की भूमि को उच्चारप्रस्रवणभूमि कहा जाता है। प्रश्न-सूत्रकार ने जो पुरीषालय का निर्देश किया है, इस की यहां क्या आवश्यकता थी? क्या यह भी कोई धार्मिक अंग है ? उत्तर-जहां पर मलमूत्र का त्याग किया जाता हो उस स्थान को देखने से दो लाभ होते हैं। प्रथम तो वहां के जीवों की यतना हो जाती है। दूसरे वहां की सफाई से भविष्य में होने वाली जीवों की विराधना से बचा जा सकता है और तीसरी बात यह भी है कि यदि किसी समय अकस्मात् बाधा (मलमूत्र त्यागने की हाजत) उत्पन्न हो जाए तो उस से झटिति निवृत्ति 1. पोषणं पोषः पुष्टिरित्यर्थः तं धत्ते गृह्णाति इति पोषधः, स चासावुपवासश्चेति। यद्वोक्त्यैव व्युत्पत्त्या पोषधमष्टम्यादिरूपाणि पर्वदिनानि तत्रोप आहारादित्यागरूपं गुणमुपेत्य वासः-निवसनमुपवास इति पोषधोपवासः। (उपासकदशांग संजीवनी टीका पृष्ठ 257) 910 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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