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________________ कर दूंगा, शासक बन जाऊंगा, मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी, धन की प्राप्ति होगी तथा अन्य परिवार . आदि की उपलब्धि होगी। इस से स्पष्ट है कि पूजक व्यक्ति मोहजाल को अधिकाधिक . प्रसारित कर रहा है, जो कि संसारवृद्धि का कारण होता है, परन्तु यह एक मुमुक्षु प्राणी को इष्ट नहीं होता। ___ यदि कोई यह कहे कि देवपूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा स्वर्ग की उपलब्धि होती है, तो यह उस की भ्रान्ति है। कारण यह है कि देव में ऐसा करने की शक्ति ही नहीं होती। अशक्त से शक्ति की अभ्यर्थना का कुछ अर्थ नहीं होता। धनहीन से धन की आशा नहीं की जा सकती। दूसरी बात यह है कि जब देव देवरूप से स्वयं मुक्ति में नहीं जा सकता और जब देव को देवलोक की भवस्थिति पूर्ण होने पर-आयु की समाप्ति होने पर अनिच्छा होते हुए भी भूतल पर आना पड़ता है तो वह दूसरों को मुक्ति में कैसे पहुंचा सकता है ? तथा स्वर्ग का दाता कैसे हो सकता है ? हां, यह ठीक है कि जो लोग देव को कर्मफल का निमित्त मान कर देवपूजा करने वाले पर मिथ्यात्वी का आरोप करते हैं, यह भी उचित नहीं है। पदार्थों का यथार्थ बोध ही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व का न होना मिथ्यात्व है। देव को निमित्त मान कर पूजा करने वाले को पूर्वोक्त बोध है। वह जानता है कि मैं यह संसार बंधन का काम कर रहा हूँ और इस में मुझे अध्यात्मसंबंधी कोई भी लाभ नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उसे सम्यक्त्व से शून्य कहना भ्रान्ति है। यदि-ऐहिक प्रवृत्तियों में देव सहायक हो सकता है-मात्र यह मान कर देवों की आराधना करने वाले व्यक्ति मिथ्यात्वी हो जाएंगे तो तेला कर के अर्थात् लगातार तीन उपवास कर देवता का आह्वान करने वाले वासुदेव कृष्ण तथा चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि सभी पूर्वपुरुष मिथ्यात्वियों की कोटि में नहीं आ जाएंगे? और क्या यह सिद्धांत को इष्ट है ? उत्तर स्पष्ट है-नहीं। . प्रस्तुत सूत्र में उम्बरदत्त का जन्म, उस के पिता सागरदत्त और माता गंगादत्ता का कालधर्म को प्राप्त होना, तथा उस को घर से निकालना एवं उस के शरीर में भयंकर रोगों का उत्पन्न होना, इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार गौतम स्वामी के द्वारा उम्बरदत्त के भावी जीवन के विषय में की गई पृच्छा का वर्णन करते हैं - मूल-तते णं से उम्बरदत्ते दारए कालमासे कालं किच्चा कहिंगच्छिहिति? कहिं उववजिहिति ? छाया-ततः स उम्बरदत्तो दारकः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गमिष्यति ?, कुत्रोपपत्स्यते ? प्रथम श्रुतस्कंध] . श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [611
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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