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________________ होगा। वहां से निकल कर सिंह की योनि में उत्पन्न होगा। वहां पर काल करके चौथी नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सर्प बनेगा। वहां से पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर स्त्री बनेगा। वहां से काल करके छठी नरक में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर पुरुष बनेगा। वहां पर काल करके सब से नीची सातवीं नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर जो ये जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुंसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों से उत्पन्न होने वाली कुल कोटियों (कुल-जीवसमूह, कोटि-भेद) की संख्या साढ़े बारह लाख है, उन के एक-एक योनि-भेद में लाखों बार जन्म और मरण करता हुआ इन्हीं में बार-बार उत्पन्न होगा अर्थात् आवागमन करेगा। तत् पश्चात् वहां से निकल कर चौपायों में, छाती के बल चलने वाले, भुजा के बल चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले जीवों में एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों तथा वनस्पतिगत कटु वृक्षों और कटु दुग्ध वाले वृक्षों में, वायु, तेज, जल और पृथिवी काय में लाखों बार उत्पन्न होगा। ___ तदनन्तर वहां से निकल कर वह सुप्रतिष्ठ पुर नाम के नगर में वृषभ-(बैल) रूप से उत्पन्न होगा। जब वह बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में आएगा तब गंगा नाम की महानदी के किनारे की मृत्तिका को खोदता हुआ नदी के किनारे के गिर जाने पर पीड़ित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, मृत्यु को प्राप्त होने के बाद वह वहीं सुप्रतिष्ठ पुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठी के घर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त करने के अनन्तर वह साधु-जनोचित सद्गुणों से युक्त किन्हीं ज्ञान वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनेगा, सुनकर मनन करेगा, तदनन्तर मुंडित होकर अगारवृत्ति को त्याग कर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा। अर्थात् गृहस्थावास से निकल कर साधु-धर्म को अंगीकार करेगा। उस अनगार-धर्म में ईर्यासमितियुक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वहां बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय-दीक्षाव्रत का पालन कर आलोचना और प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में, जो धनाढ्य कुल हैं उन में उत्पन्न होगा, वहां उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन इत्यादि सब वृत्तांत दृढ़-प्रतिज्ञ की भांति जान लेना। सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू! इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान् 208] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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