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________________ अपनी गुणसम्पदा से सब को सन्तापरहित करने में समर्थ है। ... सौभाग्ययुक्त सुभग कहलाता है। जिस का रूप-आकृति सौभाग्य प्राप्ति का हेतु हो वह सुभगरूप है। चन्द्रमा देखने में प्रिय होता है, सब में शीतलता का संचार करता है परन्तु उस में सौभाग्यवर्धकता नहीं है। वह भूख के कष्ट को नहीं मिटा सकता, किन्तु सुबाहुकुमार में यह त्रुटि भी नहीं थी। वह सब के दुःखों को दूर करने में व्यस्त रहता है, इसलिए वह सुभगरूप है। ___ उत्तमोत्तम स्वादिष्ट भोजन करना, बहुमूल्य वस्त्राभूषण पहनना और यथारुचि आमोदप्रमोद करना मात्र ही आकर्षक नहीं होता, उस के लिए तो प्रेम और अच्छे स्वभाव की भी आवश्यकता होती है। एतदर्थ ही सुबाहुकुमार के लिए प्रियदर्शन और सुरूप ये दो विशेषण दिए हैं। प्रेम का आदर्श उपस्थित करने वाली दिव्य मूर्ति का प्रियदर्शन के नाम से ग्रहण होता है और स्वभाव की सुन्दरता का सूचक सुरूप पद है। __भगवान् गौतम के कथन से स्पष्ट है कि श्री सुबाहुकुमार में उपरिलिखित सभी विशेषताएं विद्यमान थीं, वे उसे समस्त जनता का प्यारा कहते हैं। इतना ही नहीं किन्तु साधुजनों को भी प्रिय लगने वाला सुबाहुकुमार को बता रहे हैं। ___ जनता तो कदाचित् भय और स्वार्थ से भी प्यार कर सकती है परन्तु साधुओं को किस से भय ? और किस से स्वार्थ ? उन्हें किसी की झूठी प्रशंसा से क्या प्रयोजन ? गौतम स्वामी कहते हैं कि सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, सौम्य और प्रियदर्शन है। इस से प्रतीत होता है कि वास्तव में ही वह ऐसा था। जो निस्पृह आत्मा आरम्भ से दूर हैं, जिन का मन तृण, मिट्टी, मणि और कांचन के लिए समान भाव रखता है, जो कांचन, कामिनी के त्यागी हैं, जिन्होंने संसार के समस्त प्रलोभनों पर लात मार रखी है, उन्हें भी सुबाहुकुमार इष्ट, कान्त और मनोज्ञ प्रतीत होता है। इस से सुबाहुकुमार की विशिष्ट गुणगरिमा के प्रमाणित होने में कोई भी सन्देह बाकी नहीं रह जाता। "-इटे-" आदि पदों की व्याख्या श्री अभयदेवसूरि के शब्दों में निम्नोक्त है___ इष्यते स्मेति इष्टः (जो चाहा जाए, वह इष्ट होता है) स च कृतविवक्षितकार्यापेक्षयापि स्यादित्याह-इष्टरूपः-इष्टस्वरूप इत्यर्थः (किसी की चाह उस के विशेष कृत्य को उपलक्षित कर के भी हो सकती है, इस इष्टता के निवारणार्थ इष्टरूप यह विशेषण दिया गया है, अर्थात् उस की आकृति ही ऐसी थी जो इष्ट प्रतीत होती थी) इष्ट इष्टरूपो वा कारणवशादपि स्यादित्यत आह-कान्तः-कमनीय, कान्तरूप:-कमनीयरूपः,शोभन: शोभनस्वभावश्चेत्यर्थः (इष्टता और इष्टरूपता किसी कारणविशेष से भी हो सकती है, इस द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [863
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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