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________________ महाराज को बधाई दी और देवदत्ता को उन के अर्पण कर दिया। महाराज वैश्रमणदत्त परम सुन्दरी कुमारी देवदत्ता को देख कर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने भी अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को बुला कर उन्हें विविध प्रकार के भोजनों तथा गंध, पुष्प और वस्त्रालंकारादि से सत्कृत किया। तदनन्तर वर और कन्या दोनों का अभिषेक करा और उत्तम वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अग्निहोम कराया और विधिपूर्वक बड़ी धूमधाम के साथ उन का पाणिग्रहण-विवाह किया गया। विवाह हो जाने पर देवदत्ता के माता पिता और उन के साथ आने वाले उन के मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों को भी भोजनादि से तथा अन्य वस्त्राभूषणादि से सत्कृत कर के महाराज वैश्रमणदत्त ने सम्मानपूर्वक विदा किया। इस प्रकार कुमारी देवदत्ता और राजकुमार पुष्यनन्दी का विवाह हो जाने पर सेठ दत्त और महाराज वैश्रमण दोनों ही निश्चिन्त हो गये। कन्या को ससुराल में ले जाकर विवाह करने की उस समय की प्रथा थी। दक्षिण प्रांत के किन्हीं देशों में आज भी इस प्रथा का कुछ रूपान्तर से प्रचलन सुनने में आता है। देशभेद और कालभेद से अनेक विभिन्न सामाजिक प्रथाएं प्रचलित हैं इन में आशंका या आपत्ति को कोई स्थान नहीं। ___अग्निहोम-अग्नि में मन्त्रोच्चारणपूर्वक घृतादिमिश्रित सामग्री के प्रक्षेप को अग्निहोम कहते हैं। यह विवाहविधि का उपलक्षक है। भारतीय सभ्यता में अग्नि को साक्षी रख कर पाणिग्रहण-विवाह करने की मर्यादा व्यापक अथच चिरन्तन है। -असण० ४-यहां के अंक से पाणखाइमसाइमेणं- इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। तथा-मित्तनाति० आमंतेति-यहां का बिन्दु-नियगसयणसम्बन्धिपरिजणं-इस पाठ का परिचायक है। मित्र आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिख दिया गया है। तथापहाते जाव पायच्छित्ते-यहां के जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्मे, कयकोउयमंगलइस पाठ का ग्रहण करना चाहिए। कृतबलि कर्मा आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा गया है। तथा-मित्त सद्धिं-यहां का बिन्दु-णाइ-णियग-सयण-सम्बन्धिपरिजणेणं-इस पाठ का बोधक है। तथा-आसादेमाणे ४-यहां के अंक से अभिमत पाठ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। तथा-आयन्ते ३-यहां के अंक से-चोक्खे परमसुइभूएइन पदों का ग्रहण करना चाहिए। आचान्त आदि पदों का अर्थ पदार्थ में दे दिया गया है। -हायं जाव विभूसियसरीरं-यहां पठित जाव-यावत् पद से-कयबलिकम्म कयकोउय मंगलपायच्छित्तं सव्वालंकार-इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। तथा 726 ] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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