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________________ सव्वालंकारविभूसियसरीरं-का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। -सव्विड्ढीए जाव नाइयरवेणं-यहां के जाव-यावत् पद से-सव्वजुईए सव्वबलेणं, सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपुष्फगन्ध-मल्लालंकारेणं सव्वतुडियसद्दसण्णिणाएणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं संख-पणव-पडहभेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुयंग-दुंदुहि-णिग्योस-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। इन का अर्थ निम्नोक्त है सर्व प्रकार की आभरणादिगत द्युति-कान्ति से अथवा सब वस्तुओं के सम्मेलन से, सर्वसैन्य से, सर्वसमुदाय से अर्थात् नागरिकों के समुदाय से, सर्व प्रकार के आदर से अथवा औचित्यपूर्ण कार्यों के सम्पादन से, सर्व प्रकार की विभूति-सम्पत्ति से, सर्व प्रकार की शोभा से, सर्व प्रकार के संभ्रम-आनन्दजन्य उत्सुकता से, सर्व प्रकार के पुष्प, गन्ध-गन्धयुक्त पदार्थ, माला एवं अलंकारों से और सर्व प्रकार के वादित्रों के मेल से जो शब्द उत्पन्न होता है, उस मिले हुए महान् शब्द से अर्थात् बाजों की गड़गड़ाहट से तथा महती ऋद्धि से, महती कान्ति से, महान् सैन्यादि रूप बल से, महान् समुदाय से अनेक प्रकार के सुन्दर-सुन्दर साथ-साथ बजते हुए शंख (वाद्यविशेष), पणव-ढोल, पटह-बड़ा ढोल (नक्कारा) भेरी-वाद्यविशेष, झल्लरि-वलयाकार-वाद्यविशेष (झालर) खरमुखी-वाद्यविशेष, हुडुक्क-वाद्यविशेष, मुरजवाद्यविशेष, मृदंग-एक प्रकार का बाजा जो ढोलक से कुछ लम्बा होता है (तबला), दुंदुभिवाद्यविशेष के शब्दों की प्रतिध्वनि के साथ। ___-करयल जाव वद्धावेति-यहां के जाव-यावत् पद से-परिग्गहियंदसणहं अंजलिं मत्थए कट्ट वेसमणं रायं जए णं विजएणं-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ . मूलार्थ में कर दिया गया है। -हट्टतुटु० विउलं-यहां के बिन्दु से -चित्तमाणंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकलंबुगं पिव समुस्ससियरोमकूवे-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ तृतीय अध्याय में लिखा जा चुका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां ये एक स्त्री के विशेषण हैं जब कि प्रस्तुत में एक पुरुष के। अर्थगत कोई भिन्नता नहीं है। 1. प्रस्तुत में एक आशंका होती है कि जब ऋद्धि आदि के साथ पहले सर्व शब्द का संयोजन किया हुआ है, फिर उन के साथ महान् शब्द के संयोजन की क्या आवश्यकता थी? इस का उत्तर टीकाकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में-अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टा, अत आह-महता इड्ढीए-इस प्रकार है, अर्थात् सर्व शब्द का प्रयोग अल्प अर्थ में भी उपलब्ध होता है। अतः प्रस्तुत में ऋद्धि आदि की महत्ता दिखलाने के लिए सत्रकार ने ऋद्धि आदि शब्दों के साथ महत्ता इस पद का प्रयोग किया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / नवम अध्याय [727
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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