________________ अह चउत्थं अज्झयणं अथ चतुर्थ अध्याय प्रत्येक अनुष्ठान में विधि का निर्देश होता है। विधिपूर्वक किया गया क्रियानुष्ठान ही हितप्रद, लाभप्रद और फलदायक हो सकता है। विधिहीन अनुष्ठान से फलाप्राप्ति के अतिरिक्त. . विपरीत फल की संभावना भी रहती है और वह सुखप्राप्ति के स्थान में संकट का उत्पादक भी बन जाता है। दान भी एक प्रकार का पवित्र अनुष्ठान है। उस का भी विधिपूर्वक ही आचरण करना चाहिए। विधि का स्वरूप नीचे की पंक्तियों में है। ___दान देते समय भावना उच्च और निर्मल हो तथा साथ में प्रेम का संचार हो। तभी दानविधि सम्पन्न होती है। किसी को अनादर या अपमान से दिया हुआ दान दाता को उस के अच्छे फल से वंचित कर देता है, प्रस्तुत अध्ययन में इसी प्रकार के विधिपूर्ण दान और उस से निष्पन्न होने वाले मधुर फल की चर्चा की गई है, जिस को सुवासव कुमार के जीवनवृत्तान्त द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। सुवासव कुमार का परिचय निम्नोक्त है मूल-चउत्थस्स उक्खेवो।विजयपुरंणगरं। नन्दणवणं उज्जाणं।असोगो जक्खो। वासवदत्ते राया। कण्हा देवी। सुवासवे कुमारे। भद्दापामोक्खाणं पंचसयाणं जाव पुव्वभवे।कोसम्बीणगरी।धणपाले राया।वेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिए। इहं उप्पन्ने जाव सिद्धे।निक्खेवो। ॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ छाया-चतुर्थस्योत्क्षेपः। विजयपुरं नगरम्। नन्दनवनमुद्यानम्। अशोको यक्षः। वासवदत्तो राजा। कृष्णादेवी। सुवासवः कुमारः। भद्राप्रमुखाणां पंचशतानां यावत् पूर्वभवः। कौशाम्बी नगरी। धनपालो राजा वैश्रमणभद्रोऽनगारः प्रतिलाभितः। इहोत्पन्नो. यावत् सिद्धः। निक्षेपः। 968 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध