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________________ मणुप्पत्ते- से लेकर -सिज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाण-यहां तक के पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन पदों का अर्थ प्रथम अध्ययन के अन्त में किया जा चुका -निक्खेवो-'निक्षेप- को दूसरे शब्दों में उपसंहार कहते हैं। लेखक जिस समय अपने प्रतिपाद्य विषय का वर्णन पूर्ण करता है तो अन्त में पूर्वभाग को उत्तरभाग से मिलाता है। उसी भाव को सूचित करने के लिए प्रकृत अध्ययन के अन्त में "-निक्खेवो-" यह पद दिया गया है। इस पद से अभिव्यञ्जित अर्थात् प्रस्तुत तृतीय अध्ययन के पूर्वापर सम्बन्ध को मिलाने वाला पाठ निम्न प्रकार से समझना चाहिए "एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तइयस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि"। पाठकों को स्मरण होगा कि चम्पा नगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अन्तेवासी-शिष्य श्री सुधर्मा स्वामी तथा इन्हीं के शिष्य श्री जम्बू स्वामी विराजमान हैं। वहां श्री जम्बू स्वामी ने अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से यह प्रार्थना की थी कि भगवन् ! विपाकश्रुत के अन्तर्गत दुःखविपाक के द्वितीय अध्ययन के अर्थ को तो मैंने आप श्री से सुन लिया है, परन्तु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उसके तीसरे अध्ययन में किस अर्थ का वर्णन किया है, अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया है / यह मैंने नहीं सुना, अतः आप श्री उस का अर्थ सुनाने की भी मुझ पर कृपा करें-यह प्रश्न प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में किया गया था। उसी प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी अभग्नसेन का जीवनवृत्तान्त सुनाने के अनन्तर कहते हैं कि हे जम्बू ! इस प्रकार मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। तथा हे जम्बू ! जो कुछ मैंने कहा है उस में मैंने अपनी तरफ से कुछ नहीं कहा किन्तु भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में निवास कर जो कुछ मैंने उनसे सुना, वही तुम को सुना दिया-यह-"एवं खलु जम्बू !"- इत्यादि पदों का भावार्थ है। प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में सूत्रकार ने मानव जीवन के कल्याण के लिए अनेकानेक अनमोल शिक्षाएं दे रखी हैं। मात्र दिग्दर्शन के लिए, कुछ नीचे अंकित की जाती हैं (1) कुछ रसना-लोलुपी लोग अंडों में जीव नहीं मानते हैं। उन का कहना है कि 1. निक्षेप शब्द का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। . 434 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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