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________________ अण्डा वनस्पति का ही रूपान्तर है, परन्तु उन्हें प्रस्तुत तृतीय अध्ययन में वर्णित निर्णय अंडवाणिज के जीवनवृत्तान्त से यह समझ लेना चाहिए कि अण्डा मांस है, उस में भी हमारी तरह से प्राणी निवास करता है और जिस तरह से हम अपना जीवन सुरक्षित एवं निरापद बनाना चाहते हैं, वैसे उनमें भी अपने जीवन को सुरक्षित एवं निरापद रखने के अव्यक्त अध्यवसाय अवस्थित हैं। तथा जिस तरह हमें किसी के पीड़ित करने पर दुःखानुभव एवं सुख देने पर सुखानुभव होता है उसी तरह उसे भी दुःख देने पर दुःखानुभूति और सुख देने पर सुखानुभूति होती है। फिर भले ही उसकी सुखानुभूति एवं दुःखानुभूति की सामग्री हमारी दुःखसामग्री से भिन्न हो / परन्तु अनुभव की अवस्थिति दोनों में बराबर चलती है। अतः अण्डों को नष्ट कर देना या खा जाना एवं उसके क्रयविक्रय का अर्थ है-प्राणियों के जीवन को लूट लेना। किसी के जीवन को लूट लेना पाप है, जो कि मानवता के लिए सब से बड़ा अभिशाप है। पाप दुःखों का उत्पन्न करने वाला होता है, एवं आत्मा को जन्म-मरण के परम्पराचक्र में धकेलने का प्रबल एवं अमोघ (निष्फल न जाने वाला) कारण बनता है। तभी तो अभग्नसेन के जीव को निर्णय अण्डवाणिज के भव में किए गए अंडों के भक्षण एवं उन के अनार्य एवं अधर्मपूर्ण व्यवसाय के कारण ही सात सागरोपम जैसे लंबे काल तक नरक में नारकीय असह्य एवं भीषणातिभीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ा था। अतः सुखाभिलाषी एवं विचारशील पुरुष को प्रस्तुत अध्ययन में दी गई शिक्षा से अपने को शिक्षित करते हुए अण्डों का पापपूर्ण भक्षण एवं उन के हिंसक और अनार्य व्यवसाय से सदा दूर रहना चाहिए, अन्यथा निर्णय 1. श्री दशवैकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन में जहां त्रस प्राणियों का वर्णन किया है वहां अण्डज को उस प्राणी माना है। अण्डे से पैदा होने वाले पक्षी, मछली आदि प्राणी अण्डज कहलाते हैं। से जे पण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा-अण्डया पोयया.....। . कुछ लोग यह आशंका करते हैं कि जब अण्डे को तोड़ा जाता है तो वहां से किसी प्राणी के निकलने की बजाय तरल पदार्थ निकलता है। ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि अण्डे में जीव है ? इस आशंका का उत्तर निम्रोक्त है अण्डे से निसृत पदार्थ तरल है इसलिए उस में जीव नहीं है, यह कोई सिद्धान्त नहीं है, क्योंकि अण्डे जैसी ही स्थिति मनुष्य के गर्भ की भी होती है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दो या तीन मास के गर्भ का पतन किया जाए तो गर्भाशय से मात्र रक्त का ही स्राव होता है, तथापि ऐसे रक्तस्वरूप गर्भ का पात करना जहां आध्यात्मिक दृष्टि से पञ्चेन्द्रियवध है महापाप है, वहां कानून (राजनियम) की दृष्टि से भी वह निषिद्ध एवं दण्डनीय है। गर्भपात का निषेध इसी लिए किया जाता है कि कुछ काल के अनन्तर उस गर्भ में से किसी प्राणी का विकसित एवं परिवृद्ध रूप उपलब्ध होना था। ठीक इसी प्रकार अण्डे से भी समयान्तर में किसी गतिशील एवं सांगोपांग प्राणी का प्रादुर्भाव अनिवार्य होता है। तब यह कहना कि अण्डे में जीव नहीं होता, यह एक भयंकर भूल है। वैज्ञानिक लोग बताते हैं कि यदि सूक्ष्म पदार्थों का निरीक्षण करने वाले यन्त्रों द्वारा अण्डे के भीतर के तत्त्व का निरीक्षण किया जाए तो उस में जीव की सत्ता का अनुभव होता है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [435
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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