________________ अण्डवाणिज के जीव की भान्ति नारकीय भीषण यातनाओं से अपने को बचाया नहीं जा . सकेगा। (2) धन-जनादि के अभिमान से मत्त हुए अज्ञानी जीव जिस समय पापकर्मों का आचरण करते हैं तो वे उस समय बड़ी खुशियां मनाते हैं और सत्पुरुषों के अनेकों बार समझाए जाने पर भी उन पाप कर्मों के दुःखद परिणाम-फल की ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं जाने पाता, प्रत्युत पापपूर्ण प्रवृत्तियों को ही अपने जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य बनाते हुए रात-दिन पापाचरणों में संलग्न रह कर वे अपने इस देवदुर्लभ मानवभव को नष्ट कर देने पर तुले रहते हैं, परन्तु जब उन्हें उन हिंसा-पूर्ण दुष्प्रवृत्तियों से उत्पन्न पापकर्मों का कटुफल भुगतना पड़ता है, तब वे अत्राण एवं अशरण होकर रोते हैं, चिल्लाते हैं और अत्यधिक दुर्दशा को प्राप्त करने के साथ-साथ अन्त में नरकों में नाना प्रकार के भीषण दुःखों का उपभोग करते हैं। पुरिमताल नगर के प्रत्येक चत्वर पर बन्दी बने हुए अभग्नसेन चोरसेनापति के साथ जो अमानुषिक व्यवहार किया गया है, तथा उसे जो हृदयविदारक दण्ड दिया गया है, वह सब उसके अपने ही निर्णय अण्डवाणिज के भव में किए गए मांसाहार एवं अनार्य व्यवसाय से उत्पन्न कर्मों के कारण तथा इस भव में ग्रामों का जलाना, नगरों को दग्ध करना, पथिकों को लूट कर उनके प्राणों का अन्त कर डालना तथा उन्हें दाने-दाने का मोहताज बना देना इत्यादि भयानक दानवीय पाप कर्मों का ही कटु परिणाम है। इस लिए प्रत्येक सुखाभिलाषी पुरुष को मांसाहार और उसके हिंसापूर्ण व्यवसाय से विरत रहने के साथ-साथ ग्रामघ्रातादि दुष्कर्मों से अपने आपको सदा बचाना चाहिए और जहां तक बन सके दुःखितों के दुःख.को दूर करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि सत्कार्यों में अधिकाधिक भाग लेना चाहिए। तभी मानव जीवन की सफलता है एवं कृतकृत्यता है। // तृतीय अध्याय समाप्त॥ 436 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध