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________________ पाठकों को स्मरण होगा कि श्री विपाक सूत्र के प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र की जीवनी का उल्लेख किया गया है। सूत्रकार उसी बात का स्मरण कराते हुए लिखते हैं. "-एवं संसारो जहा पढमे-" अर्थात् जैसा कि प्रथम अध्ययन में मृगापुत्र का संसारभ्रमण कथन कर आए हैं, ठीक उसी तरह पृथिवीकायोत्पत्तिपर्यन्त प्रस्तुत अध्ययन में भी अभग्रसेन चोर-सेनापति के जीव का संसारभ्रमण जान लेना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तोजैसे मृगापुत्र संसार में गमनागमन करेगा उसी प्रकार अभग्नसेन का जीव भी चतुर्गतिरूप संसार में जन्म-मरण करेगा-यह कहा जा सकता है। दोनों में जो विशेष अन्तर है, उसका निर्णय सूत्रकार ने स्वयं कर दिया है। मृगापुत्र का जीव तो नरक से निकल कर प्रतिष्ठानपुर नगर में गोरूप से उत्पन्न होगा जब कि अभग्नसेनका जीव बनारस नगरी में शूकर रूप से जन्म लेगा। भगवान् कहते हैं कि गौतम ! शूकर रूप में जन्मा हुआ अभग्नसेन का जीव शिकारियों के द्वारा मारा जाकर फिर बनारस नगरी में एक प्रतिष्ठित कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेकर वह अपने जीवन को उन्नत बनाने का प्रयत्न करेगा। युवावस्था को प्राप्त होने पर एक संयमशील मुनि के सहवास से मानवजीवन के महत्त्व को समझेगा। तथा आध्यात्मिक विचारधाराओं के बढ़ते-बढ़ते अंततोगत्वा वह साधुवृत्ति को अंगीकार करेगा और उसके यथाविधि पालन से सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा। देवोचित सुखों का उपभोग कर के वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहां युवावस्था को प्राप्त हो कर अनगार-वृत्ति को अंगीकार करेगा। उसके सम्यक् अनुष्ठान से कर्मरूप इन्धन को तपरूप अग्नि से जलाकर आत्मगत कर्म-मल को भस्मसात् करता हुआ परम कल्याणरूप निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेगा। तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकार के कर्मों का अन्त करके जन्ममरण से रहित होता हुआ शाश्वत सुख को प्राप्त करेगा, आत्मा से परमात्मपद को ग्रहण कर लेगा। __-उक्कोसे- यहां का बिन्दु -उक्कोससागरोवमट्टिइएसु-इस समस्त पद का परिचायक है। इस पद का अर्थ पदार्थ में किया जा चुका है। _ -जहा पढमे जाव पुढवीए०- यहां पठित जाव-यावत् पद से –सरीसवेसु उववज्जिहिइ तत्थ णं कालं किच्चा-से लेकर -तेउ आउ०-यहां तक के पदों का ग्रहण समझना। इन पदों का शब्दार्थ प्रथम अध्याय में दिया जा चुका है। तथा-पुढवीए०-यहां के बिन्दु से - अणेगसतसहस्सक्खुत्तो उववज्जिहिति-इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् लाखों बार पृथिवीकाया में उत्पन्न होगा। _-पढमेजाव अंतं-यहां के -जाव-यावत्-पद से-विण्णायपरिणयमित्तेजोव्वण मम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [433
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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