________________ छाया-एवं खलु स्वामिन् ! शालाटव्याश्चोरपल्ल्या: अभग्नसेनश्चोरसेनापति; अस्मान् बहुभिामघातैश्च यावद् निर्धनान् कुर्वन् विहरति / तदिच्छामः स्वामिन् ! युष्माकं बाहुच्छायापरिगृहीता निर्भया निरुद्विग्नाः सुखसुखेन परिवस्तुम्, इति कृत्वा पादपतिताः प्राञ्जलिपुटाः महाबलं राजानमेनमर्थं विज्ञपयन्ति। पदार्थ-एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। सामी !-हे स्वामिन् ! सालाडवीए-शालाटवी नामक। चोरपल्लीए-चोरपल्ली का।अभग्गसेणे-अभग्नसेन नामक / चोरसेणावती-चोरसेनापति / अम्हेहम को। बहूहि-अनेक। गामघातेहि य-ग्रामों के विनाश से। जाव-यावत्। निद्धणे-निर्धन / करेमाणेकरता हुआ। विहरति-विहरण कर रहा है। तं-इस लिए। सामी!-हे स्वामिन् ! इच्छामो णं-हम चाहते हैं कि। तुब्भं-आप की। बाहुच्छायापरिग्गहिया-भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए अर्थात् आप से संरक्षित होते हुए। निब्भया-निर्भय। णिरुब्बिग्गा-निरुद्विग्न-उद्वेगरहित हो कर हम। सुहंसुहेणं-सुखपूर्वक। परिवसित्तए-बसें-निवास करें। त्ति कट्ट-इस प्रकार कह कर वे लोग। पायपडिया-पैरों में पड़े हुए तथा। पंजलिउडा-दोनों हाथ जोड़े हुए। महब्बलं-महाबल। रायं-राजा को। एतमटुं-यह बात। विण्णवेंति-निवेदन करते हैं। मूलार्थ-हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभग्नसेन हमें अनेक ग्रामों के विनाश से यावत् निर्धन करता हुआ विहरण कर रहा है। परन्तु स्वामिनाथ ! हम चाहते हैं कि आप की भुजाओं की छाया से परिगृहीत हुए निर्भय और उद्वेग रहित होकर सुख-पूर्वक निवास करें। इस प्रकार कह कर पैरों में गिरे हुए और दोनों हाथ जोड़े हुए उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से अपनी बात कही। ___टीका-महाबल नरेश की सेवा में उपस्थित होकर उन प्रान्तीय मनुष्यों ने कहा कि महाराज ! यह आप जानते ही हैं कि हमारे प्रान्त में एक बड़ी विशाल अटवी है, उस में एक चोरपल्ली है जोकि चोरों का केन्द्र है। उस में पांच सौ से भी अधिक चोर और डाकू रहते हैं। उन के पास लोगों को लूटने के लिए तथा नगरों को नष्ट करने के लिए काफी सामान है। उनके पास नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र हैं। उनसे वे सैनिकों की तरह सन्नद्ध हो कर इधर-उधर घूमते रहते हैं। जहां भी किसी नागरिक को देखते हैं, उसे डरा धमका कर लूट लेते हैं। अगर कोई इन्कार करता है, तो उसे जान से ही मार डालते हैं। उन के सेनापति का नाम अभग्नसेन है, वह बड़े क्रूर तथा उग्र स्वभाव का है। लोगों को संत्रस्त करना, उन की सम्पत्ति को लूट लेना, मार्ग में आने-जाने वाले पथिकों को पीड़ित 392 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध