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________________ राजा, वैद्य और गुरु के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए। तथा ज्योतिषी आदि के पास जाते समय तो इस नियम का विशेषरूप से पालन करना चाहिए, कारण यह है कि फल से ही फल की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि यदि इनके पास सफल हाथ जाएंगे तो वहां से भी सफल हो कर वापिस आएंगे। इन्हीं परम्परागत लौकिक संस्कारों से प्रेरित हुए उन लोगों ने राजा को भेंट रूप में देने के लिए बहुमूल्य भेंट ले जाने की सर्वसम्मति से योजना की। ___ "महत्थं महग्धं महरिहं"- इन पदों की व्याख्या आचार्य अभयदेव सूरि के शब्दों में "-महत्थं-"त्ति महाप्रयोजनम्, “महग्धं" त्ति महा (बहु) मूल्यम्, “महरिहं" त्ति महतो योग्यमिति-इस प्रकार है। महार्थ आदि ये सब विशेषण राजा को दी जाने वाली भेंट के हैं। पहला विशेषण यह बता रहा है कि वह भेंट महान् प्रयोजन को सूचित करने वाली है। यह भेंट बहुमूल्य वाली है, यह भाव दूसरे विशेषण का है, तथा वह भेंट असाधारण-प्रतिष्ठित मनुष्यों के योग्य है अर्थात् साधारण व्यक्तियों को ऐसी भेंट नहीं दी जा सकती, इन भावों का परिचायक तीसरा विशेषण है। राजा के योग्य जो भेंट होती है उसे राजार्ह कहते हैं। ___ प्रस्तुत सूत्र में अभग्नसेन के दुष्कृत्यों से पीड़ित एवं सन्तप्त जनपद में रहने वाले लोगों के द्वारा महाबल नरेश के पास अपना दुःख सुनाने के लिए, किए गए आयोजन आदि का वर्णन किया गया है। अब सूत्रकार लोगों ने राजा से क्या निवेदन किया उस का वर्णन करते हैं... मूल-एवं खलु सामी ! सालाडवीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावती अम्हे बहूहिं गामघातेहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरति।तं इच्छामो णं सामी ! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसित्तए त्ति कट्ट पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमढें विण्णवेंति। 1. रिक्तपाणिर्न पश्येत्, राजानं भिषजं गुरुम्। निमित्तज्ञं विशेषेण, फलेन फलमादिशेत्॥१॥ गुरु के सामने रिक्त हाथ (खाली हाथ) न जाने की मान्यता ब्राह्मण संस्कृति में प्रचलित है, परन्तु श्रमण संस्कृति में एतद्विषयक विधान भिन्न रूप से पाया जाता है, जोकि निनोक्त है गुरुदेव से साक्षात्कार होने पर-(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग, (2) अचित्त का अपरित्याग (3) वस्त्र से मुख को ढकना,(४) हाथ जोड़ लेना, (5) मानसिक वृत्तियों को एकाग्र करना इन मर्यादाओं का पालन करना गृहस्थ के लिए आवश्यक है। इतना ध्यान रहे कि यह पांच प्रकार का अभिगम (मर्यादा-विशेष) आध्यात्मिक गुरु के लिए निर्दिष्ट किया गया है। अध्यापक आदि लौकिक गुरु का इस मर्यादा से कोई सम्बन्ध नहीं है। 2.. जाव-यावत्- पद से विवक्षित पदों का वर्णन पीछे किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [391
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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