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________________ करना एवं नगरों तथा ग्रामों के लोगों को डरा धमका कर उनसे राज्यसम्बन्धी कर-महसूल वसूल करना, और न देने पर घरों को जला देना, किसानों के पशु तथा अनाज आदि को चुरा और उठा ले जाना आदि अनेक प्रकार से जनता को पीड़ित करना, उस का इस समय प्रधान काम हो रहा है। आप की प्रजा उसके अत्याचारों से बहुत दुःखी हो रही है और सबका जीवन बड़ा संकटमय हो रहा है। भय के मारे कोई बाहर भी नहीं निकल सकता। ___महाराज ! आप हमारे स्वामी हैं, आप तक ही हमारी पुकार है। हम तो इतना ही चाहते हैं कि आप की सबल और शीतल छत्र-छाया के तले निर्भय होकर सुख और शान्ति-पूर्वक जीवन व्यतीत करें। परन्तु हमारे प्रान्त में तो इस समय लुटेरों का राज्य है। चारों तरफ अराजकता फैली हुई है, न तो हमारा धन सुरक्षित है और न ही प्रतिष्ठा-आबरू। .हमारा व्यापार धंधा भी नष्ट हो रहा है। किसान लोग भी भूखे मर रहे हैं। कहां तक कहें, इन अत्याचारों ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है। कृपानिधे ! इसी दुःख को ले कर हम लोग आप की शरण में आए हैं। यही हमारे आने का उद्देश्य है। राजा प्रजा का पालक के रूप में पिता माना जाता है, इस नाते से प्रजा उस की पुत्र ठहरती है। संकटग्रस्त पुत्र की सबसे पहले अपने सबल पिता तक ही पुकार हो सकती है, उसी से वह त्राण की आशा रखता है। पिता का भी.यह कर्त्तव्य है और होना चाहिए कि वह सब से प्रथम उसकी पुकार पर ध्यान दे और उसके लिए शीघ्र से शीघ्र समुचित प्रबन्ध करे। इसी विचार से हमने अपने दुःख को * आप तक पहुंचाने का यत्न किया है। हमें पूर्ण आशा है कि आप हमारी संकटमय स्थिति का पूरी तरह अनुभव करेंगे और अपने कर्त्तव्य की ओर ध्यान देते हुए हमें इस संकट से छुड़ाने का भरसक प्रयत्न करेंगे। . यह थी उन प्रान्तीय दुःखी जनों की हृदय-विदारक विज्ञप्ति, जिसे उन्होंने वहां के शासक महाबल नरेश के आगे प्रार्थना के रूप में उपस्थित किया। जनता की इस पुकार का महीपति महाबल पर क्या प्रभाव हुआ, तथा उसकी तरफ से क्या उत्तर मिला, और उसने इसके लिए क्या प्रबन्ध किया, अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं- मूल-तते णं से महब्बले राया तेसिं जाणवयाणं पुरिसाणं अन्तिए एयमटुं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसीमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहट्ट दंडं सद्दावेति 2 एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडविंचोरपल्लिं विलुपाहि 2 अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गेण्हाहि 2 मम उवणेहि, तते णं से दंडे तहत्ति विणएणं एयमटुं पडिसुणेति। तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [393
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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