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________________ में घटीयन्त्र की तरह निरन्तर भ्रमण करने वाले जीव की जीवन यात्रा अर्थात् जन्म-मरण परम्परा का पर्यवसान कहां पर होता है और वह सदा के लिए सर्वप्रकार के दुःखों का अन्त करके वैभाविक परिणामों से रहित होता हुआ स्वस्वरूप में कब रमण करता है, इस की स्पष्ट सूचना मिलती है। ___१"अणंतरं चयं चइत्ता" इस के दो अर्थ हैं- (1) चयं-शरीर को, चइत्ता-छोड़ कर, अर्थात् तदनन्तर शरीर को छोड़ कर, और दूसरा / (2) चयं-च्यवन, चइत्ता-करके अर्थात् च्यवकर अणंतरं-सीधा-व्यवधानरहित (उत्पन्न होता है) ऐसा अर्थ है। महाविदेह-पूर्वमहाविदेह, पश्चिममहाविदेह, देवकुरु और उत्तरकुरु इन चार क्षेत्रों की महाविदेह संज्ञा है। इन में पूर्व के दो क्षेत्र कर्मभूमि और उत्तर के दो क्षेत्र अकर्मभूमि हैं। पूर्व तथा पश्चिम महाविदेह में चौथे आरे जैसा समय रहता है और देव तथा उत्तरकुरु में पहले आरे जैसा समय रहता है, और कृषि वाणिज्य तथा तप, संयम आदि धार्मिक क्रियाओं का आचरण जहां पर होता हो उसे कर्मभूमि कहते हैं-कृषिवाणिज्य-तपः-संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयः। और जहां कृषि आदि व्यवहार न हों उसे अकर्मभूमि कहते हैं। ___"अड्ढाइं" इस पद से -दित्ताई, वित्ताई, विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई, बहुधणजायरूवरययाई, आओगपओगसंपउत्ताइं,विच्छड्डियपउरभत्तपाणाइं, बहु-दासी-दासगोमहिसगवेलगप्पभूयाई,बहुजणस्स अपरिभूयाइं-" इस पाठ का ग्रहण करना ही सूत्रकार को अभिमत है। सूत्रकार महानुभाव ने "जहा दढपतिण्णे-यथा दृढ़प्रतिज्ञः" और "सा चेव वत्तव्वया-सैव वक्तव्यता" इत्यादि उल्लेख में दृढ़प्रतिज्ञ नाम के किसी व्यक्ति-विशेष का स्मरण किया है और आढ्यकुल में उत्पन्न हुए मृगापुत्र के जीव की अथ से इति पर्यन्त सारी जीवन-चर्या को उसी के समान बताया है। इस से दृढ़प्रतिज्ञ कौन था ? कहां था? जन्म के बाद उसने क्या किया, तथा अन्त में उस का क्या बना, इत्यादि बातों की जिज्ञासा का अपने आप ही पाठकों के मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। इसलिए दृढ़प्रतिज्ञ के जीवन पर भी विहंगम दृष्टिपात कर लेना उचित प्रतीत होता है। ___. दृढ़प्रतिज्ञ का जीव पूर्वभव में अम्बड़ परिव्राजक संन्यासी के नाम से विख्यात था। उस की जीवनचर्या का उल्लेख औपपातिक सूत्र में किया गया है। अम्बड़ परिव्राजक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का अनन्य उपासक था। वह शास्त्रों का पारगामी और विशिष्ट आत्मविभूतियों से युक्त और देशविरति चारित्र-सम्पन्न था। इस के अतिरिक्त वह एक 1. "-अणंतरं चयं चइत्ता-"त्ति अनन्तर शरीरं त्यक्त्वा, च्यवनं वा कृत्वा, [टीकाकारः] प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [217
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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