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________________ सम्प्रदाय का आचार्य अथच अपने सिद्धान्त के प्रतिपादन में और शास्त्रार्थ करने में बड़ा सिद्धहस्त था। उस की विशिष्ट लब्धि का इससे पता चलता है कि वह सौ घरों में निवास किया करता था। उसी अम्बड़ परिव्राजक का जीव आगामी भव में दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। माता के गर्भ में आते ही माता-पिता की धर्म में अधिक दृढ़तारे होने से उन्होंने बालक का "दृढ़प्रतिज्ञ" ऐसा गुण निष्पन्न नाम रखा / दृढ़प्रतिज्ञ का जन्म एक समृद्धिशाली प्रतिष्ठित कुल में हुआ, आठ वर्ष का होने पर विद्याध्ययनार्थ उसे एक योग्य कलाचार्य-अध्यापक को सौंप दिया गया। प्रतिभाशाली दृढ़प्रतिज्ञ के शिक्षक-गुरु ने पूरे परिश्रम के साथ उसे हर एक प्रकार की विद्या में निपुण कर दिया। वह पढ़ना, लिखना, गणित और शकुन आदि 72 कलाओं में पूरी तरह प्रवीण हो गया। इस के उपलक्ष्य में दृढ़प्रतिज्ञ के माता-पिता ने भी उसके शिक्षागुरु को यथोचित पारितोषिक देकर उसे प्रसन्न करने का यत्न किया। शिक्षासम्पन्न और युवावस्था को प्राप्त हुए दृढ़प्रतिज्ञ को देखकर उसके माता-पिता की तो यही इच्छा थी कि अब उसका किसी योग्य कन्या के साथ विवाह संस्कार करके उसे सांसारिक विषयभोगों के उपभोग करने का यथेच्छ अवसर दिया जाए। परन्तु जन्मान्तरीय संस्कारों से उबुद्ध हुए दृढ़प्रतिज्ञ को ये सांसारिक विषयभोग आपातरमणीय (जिन का मात्र आरम्भ सुखोत्पादक प्रतीत हो) और आत्म बन्धन के कारण अतएव तुच्छ प्रतीत होते थे। उनके-विषय भोगों के अचिरस्थायी सौन्दर्य का उस के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं था। उस के पुनीत हृदय में वैराग्य की उर्मियां उठ रही थीं। संसार के ये तुच्छ विषयभोग संसारीजीवों को अपने जाल में फंसाकर उसकी पीछे से जो दुर्दशा करते हैं उस को वह जन्मान्तरीय संस्कारों तथा लौकिक अनुभवों से भली-भांति जानता था, इसलिए उसने विषय भोगों की सर्वथा उपेक्षा करते हुए तथारूप स्थविरों के सहवास में रहकर आत्म कल्याण करने को ही सर्वश्रेष्ठ माना। फलस्वरूप वह उनके पास दीक्षित हो गए, और संयममय जीवन व्यतीत करते हुए, समिति और गुप्तिरूप आठों प्रवचनमाताओं की यथाविधि उपासना में तत्पर हो गए। उन्हीं के आशीर्वाद से, अष्टविध कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करके कैवल्यविभूति को उपलब्ध करता हुआ दृढ़प्रतिज्ञ का आत्मा अपने ध्येय में सफल हुआ। अर्थात् उस ने जन्म और मरण से रहित हो कर सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करके स्वस्वरूप को प्राप्त कर लिया। तदनन्तर शरीर त्यागने के बाद वह 1. "-तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे नयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ-।" 2. "-इमं एयारूवं गोणं गुणणिप्फण्णं नामधेनं काहिंति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्थंसि चेव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउ णं अम्हं दारए दढपइण्णे नामेणं, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेहिंति दढपइण्णेति"। 218 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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