________________ सिद्धगति-मोक्षपद को प्राप्त हुआ। यह दृढ़प्रतिज्ञ के निवृत्तिप्रधान सफल जीवन का संक्षिप्त वर्णन है। दृढ़प्रतिज्ञ का जीवन वृत्तान्त ज्ञात है अर्थात् सूत्र में उल्लेख किया गया है, इसलिए उसके उदाहरण से मृगापुत्र के भावी जीवन को संक्षेप में समझा देना ही सूत्रकार को अभिमत प्रतीत होता है। एतदर्थ ही सूत्र में "जहा दढपतिण्णे" यह उल्लेख किया गया है। यहां पर "सिज्झिहिति-सेत्स्यति" यह पद निम्नलिखित अन्य चार पदों का भी सूचक है। इस तरह ये पांच पद होते हैं, जैसे कि (1) सेत्स्यति-सिद्धि प्राप्त करेगा, कृतकृत्य हो जाएगा। (2) भोत्स्यते-केवलज्ञान के द्वारा समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानेगा। (3) मोक्ष्यति-सम्पूर्ण कर्मों से रहित हो जाएगा। (4) परिनिर्वास्यति-सकल कर्मजन्य सन्ताप से रहित हो जाएगा। (5) सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति- अर्थात् सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देगा। इस प्रकार मृगापुत्र के अतीत, अनागत और वर्तमान वृत्तान्त के विषय में गौतमस्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुएं श्रमण भगवान् महावीर ने जो कुछ फरमाया उस का वर्णन करने के बाद आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! मोक्षप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखविपाक के दस अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत अध्ययन में जो कुछ वर्णन है उसका मूल जम्बू स्वामी का प्रश्न है। श्री जम्बू स्वामी ने अपने गुरु आर्य सुधर्मा स्वामी से जो यह पूछा था कि-विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ है ? मृगापुत्र का अथ से इति पर्यन्त वर्णन ही आर्य सुधर्मा स्वामी की ओर से जम्बू स्वामी के प्रश्न का उत्तर है। कारण कि मृगापुत्र का समस्त जीवन वृत्तान्त सुनाने के बाद वे कहते हैं कि हे जम्बू ! यही प्रथम अध्ययन का अर्थ है कि जिस को मैंने श्रमण भगवान् महावीर से सुना है और तुम को सुनाया है। ."त्ति बेमि-इति ब्रवीमि" इस प्रकार मैं कहता हूं। यहां पर इति शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है। तथा "ब्रवीमि" का भावार्थ है कि मैंने तीर्थंकर देव और गौतमादि गणधरों . 1. "सेत्स्यति'' इत्यादि पदपंचकमिति, तत्र सेत्स्यति कृतकृत्यो भविष्यति, भोत्स्यते केवलज्ञानेन सकलज्ञेयं ज्ञास्यति, मोक्ष्यति-सकलकर्मवियुक्तो भविष्यति, परिनिर्वास्यति सकल-कर्म-कृतसन्ताप-रहितो भविष्यति, किमुक्तं भवति-सर्वदुखानामन्तं करिष्यतीति वृत्तिकारः। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [219 .