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________________ से इस अध्ययन का जैसा स्वरूप सुना है वैसा ही तुम से कह रहा हूं। इस में मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं है। इस कथन से आर्य सुधर्मा स्वामी की जो विनीतता बोधित होती है उस के उपलक्ष्य में उन्हें जितना भी साधुवाद दिया जाए उतना ही कम है। वास्तव में धर्मरूप कल्पवृक्ष का मूल ही विनय है- "विणयमूलं हि धम्मो।" सारांश-यह अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से प्रसिद्ध है। इस में मृगापुत्र के जीवन की तीन अवस्थाओं का वर्णन पाया जाता है- अतीत, वर्तमान और अनागत / इन तीनों ही अवस्थाओं में उपलब्ध होने वाला मृगापुत्र का जीवन, हृदय-तंत्री को स्तब्ध कर देने वाला है। उसकी वर्तमान दशा [जो कि अतीत दशा का विपाकरूप है] को देखते हुए कहना पड़ता है कि मानव के जीवन में भयंकर से भयंकर और कल्पनातीत परिस्थिति का उपस्थित होना भी अस्वाभाविक नहीं है। मृगापुत्र की यह जीवन कथा जितनी करुणा जनक है उतनी बोधदायक भी है। उसने पूर्वभव में केवल स्वार्थ तत्परता के वशीभूत होकर जो जो अत्याचार किए उसी का परिणाम रूप यह दण्ड उसे कर्मवाद के न्यायालय से मिला है। इस पर से विचारशील पुरुषों को जीवन-सुधार का जो मार्ग प्राप्त होता है उस पर सावधानी से चलने वाला व्यक्ति इस प्रकार की उग्र यातनाओं के त्रास से बहुत अंश में बच जाता है। अतः विचारवान पुरुषों को चाहिए कि वे अपने आत्मा के हित के लिए पर का हित करने में अधिक यत्न करें। और इस प्रकार का कोई आचरण न करें कि जिस से परभव में उन्हें अधिक मात्रा में दुःखमयी यातनाओं का शिकार बनना पड़े। किन्तु पापभीरू होकर धर्माचरण की ओर बढ़ें। यही इस कथावृत्त का सार है। मृगापुत्रीय अध्ययन विशेषतः अधिकारी लोगों के सम्मुख बड़े सुन्दर मार्ग-दर्शक के रूप में उपस्थित हो उन्हें कर्तव्य विमुखता का दुष्परिणाम दिखा कर कर्तव्य पालन की ओर सजीव प्रेरणा देता है, अतः अधिकारी लोगों को अपने भावी जीवन को दुष्कर्मों से बचाने का यत्न करना चाहिए तभी जीवन को सुखी एवं निरापद बनाया जा सकेगा। ॥प्रथम अध्ययन समाप्त॥ 220 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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