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________________ अवकोटक बन्धन से बन्धवा देते हैं और यह पूर्वोक्त रीति से वध करने के योग्य है, ऐसी आज्ञा देते हैं। .. "-हाते जाव पायच्छित्ते-" यहां पर पठित "-जाव-यावत्-" पद से "कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते-"इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में से कृतबलिकर्मा के तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि (1) शरीर की स्फूर्ति के लिए जिसने तेल आदि का मर्दन कर रखा है। (2) काक आदि पक्षियों को अन्नादि दानरूप बलिकर्म से निवृत्त होने वाला। (3) जिसने देवता के निमित्त किया जाने वाला कर्म कर लिया है। "-कृतकौतुकमंगलप्रायश्चित-" इस पद का अर्थ है- दुष्ट स्वप्न आदि के फल को निष्फल करने के लिए जिस ने प्रायश्चित के रूप में कौतुक-कपाल पर तिलक तथा अन्य मांगलिक कृत्य कर रखे हैं। _ "मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते" इस पद की व्याख्या वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से की "मनुष्याः वागुरेव मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा" अर्थात् मृग के फंसाने के जाल को वागुरा कहते हैं, जिस प्रकार वागुरा मृग के चारों ओर होती है, ठीक उसी प्रकार जिसके चारों ओर आत्मरक्षक मनुष्य ही मनुष्य हों, दूसरे शब्दों में मनुष्यरूप वागुरा से घिरे हुए को मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त कहते हैं। "-आसुरुत्ते-" इस पद के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं जैसे कि- "आशु-शीघ्रं रुप्तः क्रोधेन विमोहिता यः स आशुरुप्तः, आसुरं वा असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वाद् उक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः" अर्थात् 'आशु' इस अव्ययपद का अर्थ है-शीघ्र, और रुप्त का अर्थ है क्रोध से विमोहित। तात्पर्य यह है कि शीघ्र ही क्रोध से विमोहित अर्थात् कृत्य और अकृत्य के विवेक से रहित हो जाए उसे आशुरुप्त कहते हैं। "आसुरुत्ते" का दूसरा अर्थ है-क्रोधाधिक्य से दारुण-भयंकर होने के कारण असुर (राक्षस) के समान उक्त-कथन है जिस का, अर्थात् जिस की वाणी राक्षसों जैसी हो उसे "आशुरुक्त" कहा जाता है। सारांश यह है कि "आसुरुत्ते" के "आशुरुप्तः" और "-आशुरोक्तः-" ये दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। इस लिए उस से यहां पर दोनों ही अर्थ विवक्षित हैं। तथा 'आसुरुत्ते" के आगे दिए गए 4 के अंक से -“१रुटे, कुविए, चंडिक्किए" 1. इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त हैरुष्टः रोषवान्, कुपितः मनसा कोपवान् चाण्डिक्यितः दारुणीभूतः मिसिमिसीमाणो इत्यतः प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [313
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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