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________________ के आत्यन्तिक विनाश से निष्पन्न होने वाली आत्मा की स्वाभाविक-स्वरूपस्थिति मात्र है, जिस की उपलब्धि ही कर्मों के विनाश से हो उसे कर्म का फल कहना वा मानना उस के (मोक्ष के) स्वरूप से अनभिज्ञता प्रदर्शित करना है। यदि वास्तविकरूप से विचार किया जाए तो जो लोग मुक्तात्मा का पुनरावर्तन मानते हैं वे मोक्ष को मानते ही नहीं। उन के मत में स्वर्गविशेष ही मोक्ष है और वह कर्म का फलरूप होने से अनित्य भी है। जैन दर्शन इसे कल्प-देवलोक के नाम से अभिहित करता है, तथा अन्य भारतीय दर्शन भी इसी भाँति मानते हैं। परन्तु मुक्तात्मा का-कैवल्यप्राप्त आत्मा का पुनरावर्तन किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। कुछ लोग इस विषय में यह युक्ति देते हैं कि जहां-जहां वियोग है, वहां-वहां सम्बन्ध की सादिता है। अर्थात् संसार में जितनी संयुक्त वस्तुएं हैं उन का पूर्वरूप कभी वियुक्त भी था। वस्त्र के साथ मल का संयोग है और मल के संयोग से रहित अवस्था भी वस्त्र की उपलब्ध होती है। अतः संयोग और वियोग ये दोनों ही सादि हैं। अनादि संयोग कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता, इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है ___ सिद्धान्त कहता है कि आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त पदार्थ हैं। जब पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होता है तो उस की कर्म संज्ञा होती है। आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा अनादि और किसी एक कर्म की अपेक्षा सादि तथा अभव्य जीव की अपेक्षा अनन्त और भव्य जीव की अपेक्षा सान्त है। संयोग वियोगमूलक भी होता है और अनादि संयोग कहीं पर भी नहीं मिलता, यह कहना भ्रांतिपूर्ण है क्योंकि खान से निस्सृत सुवर्ण में मृत्तिका का संयोग अनादि देखा जाता है। जैसे यह संयोग अनादि है इस का अग्नि आदि के प्रयोग से वियोग उपलब्ध होता है, इसी भाँति आत्मा और कर्म का संयोग भी अनादि है। इस में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती और यह भी तप, जपादि के सदनुष्ठानों से विनष्ट किया जा सकता है। इस के अतिरिक्त जो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आत्मा के साथ सम्बन्धित कर्मों या कर्मदलिकों का जब वियोग होता है तो क्या उन का फिर से संयोग नहीं हो सकता। लोक में दो विभक्त पदार्थों का संयुक्त होना और संयुक्तों का पृथक् होना प्रत्यक्षसिद्ध है। इसी भाँति यह कर्मसम्बद्ध आत्मा भी किसी निमित्तविशेष से कर्मों से पृथक् होने के अनन्तर किसी निमित्तविशेष के मिलने पर फिर भी कर्मों से सम्बद्ध हो सकता है। अतः मोक्ष सादि अनन्त न रह कर सादि सान्त ही हो जाता है। इस शंका का समाधान यह है कि-जहां-जहां वियोग 1. ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। (भगवद्गीता) ' 2. यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम। (भगवद्गीता) 60] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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