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________________ अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते त्ति बेमि-" अर्थात् हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी. ने दुःख विपाक के पांचवें अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। इस प्रकार मैं कहता हूँ अर्थात् मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जैसा सुना है वैसा तुम्हें सुनाया है। इस में मेरी अपनी कोई कल्पना नहीं है। प्रस्तुत अध्ययनगत पदार्थ के परिशीलन से विचारशील सहृदय पाठकों को अन्वयव्यतिरेक से अनेक प्रकार की हितकर शिक्षाएं उपलब्ध हो सकती हैं, जिन को जीवन में उतारने से उन्हें अधिक से अधिक लाभ सम्प्राप्त हो सकता है। उन में से कुछ शिक्षाएं निम्नोक्त (1) यदि किसी को कोई अधिकार प्राप्त हो जाए तो उसे चाहिए कि वह महेश्वर दत्त पुरोहित की तरह उस का दुरुपयोग न करे। महेश्वरदत्त पुरोहित ने राज्य में उचित अधिकार प्राप्त करने के अनन्तर भी अपनी हिंसक भावना से जो-जो अनर्थ किए, उस का' दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है। तथा उस से प्राप्त होने वाली नरकयातनाओं के उपभोग का भी ऊपर वर्णन आ चुका है। इसलिए इस प्रकार के जीवन से अधिकारी वर्ग तथा अन्य सामान्यवर्ग को सर्वथा पराङ्मुख रहने का सदा यत्न करना चाहिए। (2) संसार में हिंसा के बाद जघन्य पापों में विश्वासघात का स्थान है। मित्रद्रोह या विश्वासघात एवं मित्रपत्नी से अनुचित सम्बन्ध, यह सब कुछ घोर पाप में परिगणित होता है। इस पाप का आचरण करने वाला आत्मा इस लोक और परलोक दोनों में ही दुर्गति का भाजन बनने योग्य होता है। महेश्वर दत्त के जीव ने बृहस्पति दत्त के भव में इस जघन्य आचरण से अपनी आत्मा को निकृष्ट कर्ममल से कितना दूषित बनाया और किस सीमा तक उस के कटु विपाक का अनुभव किया इस का भी ऊपर दिग्दर्शन कराया जा चुका है। उस पर से विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि उन्हें इस प्रकार के पापानुष्ठान से पृथक् रहने का यत्न करना चाहिए। और कर्त्तव्यपालन के लिए जागरूक रह कर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सदनुष्ठानों को जीवन में उतार कर आत्मश्रेय साधना चाहिए। ॥पंचम अध्याय समाप्त॥ (1) मित्रद्रोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः। ते नरा नरकं यान्ति, यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥१॥ अर्थात् -मित्रद्रोही-मित्र से द्रोह करने वाला, कृतघ्न-किए गए उपकार को न मानने वाला, और विश्वास का घात करने वाला, ये सब मर कर नरक में जाते हैं, और जब तक चन्द्र और सूर्य हैं तब तक वहां पर रहते हैं, . तात्पर्य यह है कि मित्रद्रोही आदि अत्यधिक काल तक अपने दुष्कर्मों का फल भोगने के लिए नरकों में रहते हैं, और वहां दुःख पाते हैं। 508 ] श्री विपाक सूत्रम् /पंचम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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