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________________ १धन्वन्तरि के जीव ने अपने हिंसाप्रधान चिकित्सा के व्यवसाय में पुण्योपार्जन के स्थान में अधिक से अधिक मात्रा में पापपुंज को एकत्रित किया अर्थात् मत्स्य आदि अनेक जाति के निरपराध मूकप्राणियों के प्राणों का अपहरण करने का उपदेश देकर और उनके 'मांसपिंड से अपने शरीरपिंड का संवर्द्धन करके जिस पापराशि का संचय किया, उसका फल नरकगति की प्राप्ति के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है, इसीलिए सूत्रकार ने मृत्यु के बाद उसका छठी नरक में जाने का उल्लेख किया है। सूत्रकार ने धन्वन्तरी वैद्य का जो मांसाहार तथा मांसाहारोपदेश से उपार्जित दुष्कर्मों के फलस्वरूप 22 सागरोपम तक के बड़े लम्बे काल के लिए छठी नरक में नारकीय रूप से उत्पन्न होने का कथानक लिखा है, इस से यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार दुर्गतियों का मूल है और नाना प्रकार के नारकीय अथच भीषण दुःखों का कारण बनता है, अतः प्रत्येक सुखाभिलाषी मानव का यह सर्वप्रथम कर्त्तव्य बन जाता है कि वह मांसाहार के जघन्य तथा दुर्गतिमूलक आचरण से सर्वथा विमुख एवं विरत रहे। ___ मांसाहार दुःखों का स्रोत होने से जहां हेय है, त्याज्य है, वहां वह शास्त्रीय दृष्टि से गर्हित है, निंदित है एवं उसका त्याग सुगतिप्रद होने से आदरणीय एवं आचरणीय है, यह पंचम अध्याय में बतलाया जा चुका है। इस के अतिरिक्त मांस मनुष्य का प्राकृतिक भोजन नहीं है अर्थात् प्रकृति ने मनुष्य को निरामिषभोजी बनाया है, न कि आमिषभोजी। निरामिषभोजी तथा आमिषभोजी प्राणियों की शारीरिक बनावट और उनके स्वभाव में एवं जीवनचर्या में जो महान अन्तर है, वह यत्किंचित् नीचे की पंक्तियों में दिखलाया जाता है. (1) मनुष्य के पंजे, पेट की नालियां और आन्तें उन पशुओं के समान बनी हुई हैं जो मांसाहार नहीं करते हैं। किंतु मांसाहारी पशुओं के इन अंगों की रचना निरामिषभोजी पशुओं 1. प्रस्तुत कथासन्दर्भ में जिस धन्वन्तरि वैद्य का वर्णन किया गया है और वैद्यकसंसार के लब्धप्रतिष्ठ वैद्यराज धन्वन्तरि ये दोनों एक ही थे या भिन्न-भिन्न, यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसका उत्तर निनोक्त है यह ठीक है कि नाम दोनों का एक जैसा है, परन्तु फिर भी यह दोनों भिन्न-भिन्न थे, क्योंकि इन दोनों के काल में बड़ी भिन्नता पाई जाती है। महाराज कनकरथ के राजवैद्य धन्वन्तरि अपने हिंसापूर्ण एवं क्रूरतापूर्ण मांसाहारोपदेश और मांसाहार तथा मदिरापान जैसी जघन्यतम प्रवृत्तियों के कारण छठी नरक में 22 सागरोपम जैसे बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषणातिभीषण यातनाओं का उपभोग कर लेने के अनन्तर पाटलिषंड नगर के सेठ सागरदत्त की सेठानी गंगादत्ता के उदर से उम्बरदत्त के रूप में उत्पन्न होता है, जब कि वैदिक मान्यतानुसार देवों और दैत्यों के द्वारा किए गए समुद्रमन्थन से प्रादुर्भूत हुए वैद्यकसंसार के वैद्यराज धन्वन्तरि को अभी इतना काल ही नहीं होने पाया। इसलिए दोनों की नामगत समानता होने पर भी व्यक्तिगत भिन्नता सुतरां प्रमाणित हो जाती है। 2. मत्स्य आदि पशुओं के नाम तथा उन मांसों के उपदेश का सविस्तार वर्णन मूलार्थ में पीछे किया जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [575
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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