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________________ दाहिनी ओर से बाईं ओर तीन बार अञ्जलिबद्ध हाथ घुमाकर आवर्तन रूप प्रदक्षिणा करने के अनन्तर वन्दना और नमस्कार करके उनकी सेवा करते हुए इस प्रकार बोले। आठ युवतियां सो रही हैं। सांसारिकता की उत्तेजक सामग्री पास में बिखरी पड़ी है। परन्तु एक तेजस्वी युवक किसी विचारधारा में संलग्न दिखाई दे रहा है। प्रभव युवक का तेज सह न सका। और उससे अत्यधिक प्रभावित होता हुआ सीधा वहीं पहुंचा, और विनय पूर्वक कहने लगा ___ आदरणीय युवक ! जीवन में मैंने न जाने कितने अद्भुत-आश्चर्यजनक और साहस-पूर्ण कार्य किये हैं जिनकी एक लम्बी कहानी बन सकती है। साम्राज्य की बड़ी से बड़ी शक्ति मेरा बाल बांका नहीं कर सकी, मैंने कभी किसी से हार नहीं मानी, किंतु आज मैं आपके अपूर्व विद्याबल से पराजित हो गया हूं और अपनी विद्या शक्ति को आप के सन्मुख हतप्रभ पा रहा हूं। मैं आप का अपराधी होने के नाते दण्डनीय होने पर भी कुछ दान चाहता हूं, और वह है मात्र आप की अपूर्व विद्या का दान / मुझ पर अनुग्रह कीजिए और अपना विद्यार्थी बनाइए एवं विद्यादान दीजिए। कुमार प्रभव को देखते ही सब स्थिति समझ गये और उससे कहने लगे-भाई ! मैं तो स्वयं विद्यार्थी बनने जा रहा हूँ। सूर्योदय होते ही गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी के पास साधुता ग्रहण करना चाह रहा हूँ। संयमी बन कर जीवन व्यतीत करूँगा, संसारी जीवन से मुझे घृणा है। प्रभव के पांव तले से जमीन निकल गई, वह हैरान था, अप्सराओं को मात कर देने वाली ये सुकुमारियां त्याग दी जायेंगी ? हंत ! कितना कठिन काम है / इन पदार्थों के लिये तो मनुष्य सिर धुनता है, लोक-लाज और आत्मसम्मान जैसी दिव्य आत्म-विभूति को लुटाकर मुँह काला कर लेता है और मानव होकर पशुओं से भी अधम जीवन यापन करने के लिये तैयार हो जाता है। पर यह युवक बड़ा निराला है जो स्वर्ग-तुल्य देवियों को भी त्याग रहा है। वाह-वाह जीवन तो यह है, यदि सत्य कहूँ तो त्याग इसी का नाम है, त्याग ही नहीं यह तो त्याग की भी चरम सीमा है। ___ एक मैं भी हँ, सारा जीवन घोर पाप करते-करते व्यतीत हो रहा है, सिर पर भीषण पापों का भार लदा पड़ा है, न जाने कहाँ-कहाँ जन्म-मरण के भयंकर दु:खों से पाला पड़ेगा और कहाँ-कहाँ भीषण यातनाएं सहन करनी होंगी। अहह ! कितना पामर जीवन है मेरा! प्रभव की विचार-धारा बदलने लगी। कुमार के अनुपम आदर्श त्याग ने प्रभव के नेत्र खोल दिये। उसकी अंतर्योति चमक उठी। दानवता का अड्डा उठने लगा। बुराई का दैत्य हृदय से भाग निकला। वह दानव से मानव हो गया, लोहे से सोना बन गया। जिस अपूर्व तत्त्व पर कभी विचार भी नहीं किया था उसका स्रोत बह निकला। आग के परमाणु नष्ट होने पर जल जैसे शांत हो जाता है-अपने स्वभाव को पा लेता है, वैसे ही दुर्भावनाओं की आग शांत होते ही प्रभव शांत हो गया और अपने आप को पहचानने लगा। प्रभव सोचने लगा-इतना कोमल शरीरी युवक जब साधक बन सकता है और आत्म-साधना के कष्ट झेल सकता है तो क्या बड़े-बड़े योद्धा का मुंह मोड़ने वाला मेरा जीवन साधना नहीं कर सकेगा और उसके कष्ट नहीं झेल सकेगा? क्यों नहीं! मैं भी तो मनुष्य हूँ, इन्हीं का सजातीय हूँ, जो ये कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकता हूँ। यह सोच कर प्रभव बोला-सम्माननीय युवक ! आप के त्यागी जीवन ने मुझ जैसे पापी को बदल दिया है और बहुत कुछ सोच समझ लेने के अनन्तर अब मैंने यह निश्चय कर लिया है कि आज से आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य, जो मार्ग आप चुनोगे उसी का पथिक बनूँगा, मैं ही नहीं अपने 500 साथियों को इसी मार्ग का पथिक बनाऊंगा। 98 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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