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________________ अनन्तर बाल्यावस्था के उल्लंघन से प्रथम का काल "तत्पश्चात्" पद से ग्रहण किया जा सकता है। हमारी इस कल्पना के औचित्यानौचित्य का विशेष विचार तो आगमों के विशेषज्ञ तथा विचारशील सहृदय पाठकों के विचार-विमर्श ही पर निर्भर करता है। हमने अपने विचारानुसार अपने भाव अभिव्यक्त कर दिए हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रियसेन के द्वारा राजादि धनिकों के वश में करने आदि का जो उल्लेख किया गया है, उस की वृत्तिकार सम्मत व्याख्या इस प्रकार है विद्यामन्त्र-चूर्ण-प्रयोगैः, किंविधैः इत्याह "-हियउड्डावणेहि य-" त्ति हृदयोड्डायनैः शून्यचित्तताकारकैः,"-णिण्हवणेहि य-"त्ति अदृश्यताकारकैः किमुक्तं भवति ? अपहृतधनादिरपि परो धनापहारादिकं यैरपह्नते-न प्रकाशयति तदपह्नवता अतस्तैः।"-पण्हवणेहि य-"त्ति प्रस्नवनैर्यैः परः प्रस्तुतिं भजते प्रल्हत्तो भवतीत्यर्थः, "-वसीकरणेहि य-"त्ति वश्यताकारकैः, किमुक्तं भवति ? "आभिओगिएहि"त्ति अभियोग: पारवश्यं स प्रयोजनं येषां ते आभियोगिकाः अतस्तैः, अभियोगश्च द्वधा यदाह 'दुविहो खलु अभिओगो, दव्वे भावे स होइ नायव्वो। दव्वम्मि हुन्ति जोगा, विज्जा मंता य भावम्मि॥१॥ अर्थात् प्रस्तुत पाठ में विद्याप्रयोग और मन्त्रचूर्ण ये दो विशेष्य पद हैं और हृदयोड्डायन, निह्नवन, प्रस्नवन, वशीकरण और आभियोगिक ये विशेषण पद हैं। विद्या शब्द के "शास्त्रज्ञान, विद्वत्ता इत्यादि अनेकों अर्थ मान्य होने पर भी प्रस्तुत प्रकरण में इस का "-देवी द्वारा अधिष्ठित अक्षर-पद्धति-" यह अर्थ अभिमत है। अर्थात् प्रियसेन जो कुछ लिख देता था वह देवी के प्रभाव से निष्फल नहीं जाता था। विद्या का प्रयोग विद्याप्रयोग कहलाता है। मन्त्र शब्द देवता को सिद्ध करने की शाब्दिक शक्ति का परिचायक है। चूर्ण भस्म आदि का नाम है, तब मन्त्रचूर्ण शब्द से "-मन्त्र द्वारा मन्त्रित चूर्ण-" यह अर्थ बोधित होता है। अर्थात् प्रियसेन के पास ऐसे चूर्ण थे जिन्हें वह मन्त्रित करके रखा करता था और उन से अपना मनोरथ साधा करता था। विद्याप्रयोगों और मन्त्र-चूर्णों द्वारा प्रियसेन क्या काम लिया करता था ? इसका उत्तर सूत्रकार ने हृदयोड्डायन इत्यादि विशेषणों द्वारा दिया है। इन की व्याख्या निम्नोक्त (1) हृदयोड्डायन-हृदय को शून्य बना देने वाला अर्थात् हृदय का आकर्षण करने 1. द्विविधः खल्वभियोगो, द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः। द्रव्ये भवन्ति योगाः, विद्या मन्त्राश्च भावे // 1 // प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [325
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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