________________ अब सूत्रकार निम्नलिखित सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के वाणिजग्राम नगर में पधारने के विषय में कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे।परिसा निग्गता राया निग्गओ जहा कूणिओ निग्गओ।धम्मो कहिओ।परिसा राया य पडिगओ।तेणं कालेणं तेणं समएणंसमणस्स भगवओ महावीरस्सजेटेअंतेवासी इंदभूती जावलेसे छटुंछटेणं जहा पण्णत्तीए पढमाए जाव जेणेव वाणियग्गामे तेणेव उवा ।वाणियग्गामे उच्चणीय अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगाढे। __छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृतः। परिषद् निर्गता। राजा निर्गतो यथा कूणिको निर्गतः। धर्मः कथितः। परिषद् राजा च प्रतिगतः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूतिः यावत् लेश्यः षष्ठषष्ठेन यथा प्रज्ञप्तौ प्रथमायां यावत् यत्रैव वाणिजग्रामस्तत्रैवोपा वाणिजग्रामे उच्चनीच अटन् यत्रैव राजमार्गः तत्रैवावगाढ़ः। पदार्थ-तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में। समणे-श्रमण। भगवंभगवान्। महावीरे-महावीर। समोसढे-पधारे। परिसा निग्गता-परिषद्-नगर की जनता भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकली। जहा-जिस प्रकार। कूणिओ निग्गओ-महाराज कूणिक नगर से निकला था उसी प्रकार / राया-वाणिजग्राम का राजा मित्र भी। निग्गओ-नगर से भगवान् के दर्शनार्थ निकला। धम्मोभगवान् ने धर्मोपदेश। कहिओ-फरमाया। परिसा य-और परिषद् -जनता तथा। राया-राजा। पडिगओवापिस चले गए। तेणं कालेणं-उस काल में। तेणं समएणं-उस समय में / समणस्स-श्रमण / भगवओभगवान्। महावीरस्स-महावीर के। जेद्वे-ज्येष्ठ। अंतेवासी-शिष्य। इंदभूती-इन्द्रभूति। जाव-यावत्। लेसे-तेजोलेश्या को संक्षिप्त किए हुए। छटुंछट्टेणं-बेले-बेले की तपस्या करते हुए। जहा-जिस प्रकार। मान-जिसके द्वारा पदार्थ मापा जाए उसे मान कहते हैं। अथवा कोई पुरुष जल से भरे हुए कुंड में प्रवेश करे और प्रवेश करने पर यदि कुंड में से एक द्रोण-[चार आढ़क प्रमाण 16 सेर] प्रमाण जल बाहर निकल जावे तो वह पुरुष मानयुक्त कहलाता है। उन्मान-मान से अधिक अथवा अर्द्धभार को उन्मान कहते हैं। प्रमाण-अपनी अंगुलि से 108 अंगुलि पर्यन्त ऊंचाई की प्रमाण संज्ञा है, जिस पुरुष की इतनी उंचाई हो वह प्रमाणयुक्त कहलाता है। इस प्रकार मान, उन्मान और प्रमाण युक्त तथा योग्य अवयवों से संघटित शरीर वाले पुरुष को सुजातसर्वांगसुन्दर कहा जाता है। प्रियदर्शन-जिस के देखने से मन में आकर्षण पैदा हो, अथवा जिस का दर्शन मन को लभावे उसे प्रियदर्शन कहते हैं। 244 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . . [प्रथम श्रुतस्कंध