________________ रूप साधक के जीवन में आ जाए तो उस का जीवन सुखी एवं आदर्श बन जाता है। सामायिक जीवन भर के लिए भी की जाती है और कुछ समय के लिए भी। कम से कम उस का समय .48 मिनट है। उद्देश्य तो जीवनपर्यन्त ही सावध प्रवृत्तियों के त्याग का होना चाहिए, परन्तु यदि यह शक्य नहीं है तो गृहस्थ को कम से कम 48 मिनटों के लिए तो अवश्य सामायिक करनी चाहिए। यदि मुहूर्त भर के लिए पापों का त्याग कर लिया जाएगा तो आंशिक लाभ होने के साथ-साथ इस के द्वारा अहिंसा एवं समता की विराट झांकी के दर्शन अवश्य हो जाएंगे, जो भविष्य में उस के जीवन को जीवनपर्यन्त सावध प्रवृत्तियों से अलग रखने का कारण बन सकती है। सामायिक दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है और अहिंसा, सत्यादि की साधना को स्फूर्तिशील बनाता है। अतः जहां तक बने सामायिकव्रत का आराधन अवश्य किया जाना चाहिए और इस सामायिक द्वारा किए जाने वाले पापनिरोध और आत्मनिरीक्षण की अमूल्य निधि को प्राप्त कर परमसाध्य निर्वाणपद को पाने का स्तुत्य प्रयास करना चाहिए। इस के अतिरिक्त सामायिकव्रत के संरक्षण के लिए निम्रोक्त 5 कार्यों का अवश्य त्याग कर देना चाहिए १-मनोदुष्प्रणिधान-मन को बुरे व्यापार में लगाना अर्थात् मन का समता से दूर हो जाना तथा मन का सांसारिक प्रपञ्चों में दौड़ना एवं अनेक प्रकार के सांसारिक कर्मविषयक संकल्पविकल्प करना। - २-वचोदुष्प्रणिधान-सामायिक के समय विवेकरहित कटु, निष्ठुर, असभ्य वचन बोलना, तथा निरर्थक या सावध वचन बोलना। ३-कायदुष्प्रणिधान-सामायिक में शारीरिक चपलता दिखाना, शरीर से कुचेष्टा करना, बिना कारण शरीर को फैलाना, सिकोड़ना या बिना पूंजे असावधानी से चलना। ४-सामायिक का विस्मरण- मैंने सामायिक की है, इस बात का भूल जाना। अथवा कितनी सामायिक की हैं, यह भूल जाना। अथवा-सामायिक करना ही भूल जाना। तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य को अपने दैनिक भोजनादि का ध्यान रहता है, वैसे उसे दैनिक अनुष्ठान सामायिक को भी याद रखना चाहिए। ५-अनवस्थितसामायिककरण-अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना, सामायिक की व्यवस्था न रखना अर्थात् कभी करना, कभी नहीं करना, यदि की गई है तो उस से ऊबना, सामायिक का समय पूरा हुआ है या नहीं, इस बात का बार-बार विचार करते रहना, सामायिक का समय होने से पहले ही सामायिक पार लेना आदि। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [841