________________ जिस जीव ने पूर्व भव में जितना आयुष्य बान्धा है उतने का उपभोग करने में उसे कर्मवाद के नियमानुसार पूरी स्वतन्त्रता है। उस में किसी को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। अथवा यूं कहिए कि कर्मवाद के न्यायालय में आयुकर्म की ओर से इस प्राणी को [फिर वह मनुष्य अथवा पशु या पक्षी आदि कोई भी क्यों न हो] जितना जीवन मिला है उस के व्याघात का उद्योग करना मानो न्यायोचित आज्ञा का विरोध करना है, जिसके लिए कर्मवाद की ओर से यथोचित दण्ड का विधान है। इसी न्यायोचित सिद्धान्त की भित्ति पर अहिंसावाद के भव्य प्रासाद का निर्माण किया गया है। जिसके अनुसार किसी के जीवन का अपहरण करना मानों आत्म अपहरण करना ही है। क्योंकि जीवन का इच्छुक पर-जीवन का घातक कभी नहीं हो सकता। जैन परिभाषा के अनुसार भावमूलक द्रव्यहिंसा ही कर्मबन्धन का हेतु हो सकती है, इसलिए हिंसा के भाव से हिंसा करने वाला मानव-प्राणी पर की हिंसा करने से पूर्व अपने आत्मा का अवहनन करता है ऐसे ही प्राणी शास्त्रीय दृष्टि से आत्मघाती माने जाते विजय नरेश के अन्दर धर्म की अभिरुचि थी। महापुरुषों के सहवास में उसके विवेक चक्षु कुछ उघड़े हुए थे। अहिंसा-तत्त्व को उस ने खूब समझा हुआ था। इसी के फलस्वरूप उसने महाराणी मृगादेवी को तत्काल के जन्मे हुए उक्त बालक को बाहर फैंकने के स्थान पर उसके संरक्षण की सम्मति दी। जिस से उस के पापभीरू आत्मा को सन्तोष होने के अतिरिक्त मृगादेवी की आत्मा को भी भारी शान्त्वना मिली। ___पाठक अभी यह भूले नहीं होंगे कि भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में उपस्थित होने वाले एक जन्मान्ध व्यक्ति को देख कर गौतम स्वामी ने भगवान से "-प्रभो ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है जो जन्मान्ध (नेत्र का आकार होने पर भी नेत्रज्योति से हीन) होने के साथसाथ जन्मान्धकरूप (नेत्राकार से रहित) भी हो?" यह पृच्छा की थी। जिस के उत्तर में भगवान् ने विजय नरेश के ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र का नाम बताया था। उसे देखने के पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान् से मृगापुत्र के पूर्व जन्म का वृत्तान्त पूछा था। जिसको भगवान् ने सुनाना आरम्भ किया था। एकादि राष्ट्रकूट के रूप में मृगापुत्र के पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुना देने पर भगवान् ने कहा कि-हे गौतम ! यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। इससे तुम्हें अवगत हो गया होगा कि मृगापुत्र अपने ही पूर्वकृत प्राचीन कर्मों का यह अशुभ फल पा रहा है। इसी भाव को सूत्रकार ने "-एवं खलु गोयमा ! मियापुत्तं" इत्यादि शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया है। वीर प्रभु से मृगापुत्र के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को सुनकर परम सन्तोष को प्राप्त हुए गौतम स्वामी ने उसके-मृगापुत्र के आगामी भव के सम्बन्ध में भी जानकारी प्राप्त करने की प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [201