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________________ पर रज्जू के साथ उस पुरुष के दोनों हाथ बान्धे हुए हैं। इस बन्धन का उद्देश्य है-वध्य व्यक्ति अधिकाधिक पीड़ित हो और वह भागने न पाए। "-उक्कित्तकण्णनासं-'" उत्कृत्तकर्णनासम्, अर्थात् उस पुरुष के कान और नाक दोनों ही कटे हुए हैं। अपराधी के कान और नाक को काटने का अभिप्राय उसे अत्यधिक अपमानित एवं विडम्बित करने से होता है। "-नेहतप्पियगत्तं-" स्नेहस्नेहितगात्रम्, अर्थात् उस पुरुष के शरीर को घुत से स्निग्ध किया हुआ है। वध्य के शरीर को घृत से स्नेहित करने का पहले समय में क्या उद्देश्य होता था, इस सम्बन्ध में टीकाकार महानुभाव मौन हैं। तथापि शरीर को घृत से स्निग्ध करने का अभिप्राय उसे कोमल बना और उस पर प्रहार करके उस वध्य को अधिकाधिक पीड़ित करना ही संभव हो सकता है। "-वज्झ-करकडिजुयनियत्थं-" वध्य-करकटि-युग-निवसितम्, वध्यश्चासौ करयोः-हस्तयोः कट्यां कटीदेशे युगं-युग्मं निवसित एव निवसितश्चेति समासोऽतस्तम् अथवा वध्यस्य यत्करटिकायुगं-निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा तम्-" अर्थात् उस मनुष्य के हाथों और कमर में वस्त्रों का जोड़ा पहनाया हुआ था। अथवा-मृत्युदण्ड से दण्डित व्यक्ति को फांसी पर लटकाने के समय दो निन्द्य (घृणास्पद) वस्त्र पहनाए जाते हैं, उन निन्दनीय वस्त्रों की करकटि संज्ञा है। उस वध्य व्यक्ति को निन्दनीय वस्त्रों का जोड़ा पहना रखा है। तात्पर्य यह है कि प्राचीन समय में ऐसी प्रथा थी कि वध्य पुरुष को अमुक वस्त्रयुग्म (दो वस्त्र) पहनाया जाता था। उस वस्त्रयुग्म को धारण करने वाला मनुष्य वध्यकर-कटि-युग -निवसित कहलाता था। "-बज्झ कर-कडि-जुय-नियत्थं-" इस पद का अर्थ अन्य प्रकार से भी किया जा सकता है, जो कि निम्नोक्त है "-बद्ध-कर-कडि-युग-न्यस्तम् बद्धौ करौ कडियुगे न्यस्तौ-निक्षिप्तौ यस्य स तथा तम्, कडि इति लौहमयं बन्धनं, हथकड़ी, इति भाषाप्रसिद्धम्-" अर्थात् उस वध्य पुरुष के दोनों हाथों में हथकड़ियां पड़ी हुई हैं। "-कंठे गुणरत्तमल्लदाम-"कण्ठे गुणरक्त-माल्य-दामानम्, कण्ठे –गले गुण इव कण्ठसूत्रमिव रक्तं लोहितं माल्यदाम पुष्पमाला यस्य स तथा तम्" अर्थात् उस वध्य पुरुष के गले में गुण-डोरे के समान लाल पुष्पों की माला पहनाई हुई है। जो "-यह वध्य व्यक्ति है-" इस बात की संसूचिका है। - "-चुण्णगुंडियगत्तं-" चूर्णगुण्डितगात्रम्, चूर्णेन गैरिकेन गुण्डितं-लिप्तं गात्रं प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [255
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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