SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (18) छल्ली-त्वचा-छाल को छल्ली कहते हैं। (19, 20) मूल, कन्द-मूलीगाजर और जिमीकन्द तथा आलू आदि का नाम है। (21) शिलिका -ये चरायता आदि औषधि का ग्रहण समझना (22) गुटिका-अनेक द्रव्यों को महीन पीस कर अमुक औषधि के रस की भावना आदि से निर्माण की गई गोलियां गुटिका कहलाती हैं / (23-24) औषधं, भैषज्य-एक द्रव्यनिर्मित औषध के नाम से तथा अनेक-द्रव्य संयोजित भैषज्य के नाम से ख्यात है। "संता, तंता, परितंता" इन तीनों पदों में अर्थगत विभिन्नता वृत्तिकार के शब्दों में निम्नलिखित है 'संत'त्ति श्रान्ता देहखेदेन 'तंत'त्ति-तान्ता मन:खेदेन, "परितंत"त्ति-उभय-खेदेनेति अर्थात् शारीरिक खेद से, मानसिक खेद से, तथा दोनों के श्रम से खेदित हुए। तात्पर्य यह है कि उन का शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का श्रम व्यर्थ जाने-निष्फल होने से वे अत्यन्त खिन्नचित्त हुए और वापिस लौट गए। इस प्रकार राष्ट्रकूट के शरीर-गत रोगों की चिकित्सा के निमित्त आए हुए वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सकों के असफल होकर वापिस जाने के अनन्तर एकादि राष्ट्रकूट की क्या दशा हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं मूल-तते णं एक्काइ विजेहि य पडियाइक्खिए परियारगपरिचत्ते निविण्णोसहभेसजे सोलसरोगातंकेहि अभिभूते समाणे रज्जे य रटे य जाव अंतेउरे य मुच्छिते रजं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अहिलसमाणे अट्टदुहट्टवसट्टे अड्ढाइजाइं वाससयाइं परमाउं पालयित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवम-द्वितीएसु नेरइएसु णेरइयत्ताए उववन्ने।सेणंततो अणंतरं उव्वट्ठिता इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। ____ छाया-ततः एकादिवैद्यैश्च प्रत्याख्यातः परिचारकपरित्यक्तः निर्विण्णौषधभैषज्यः षोडशरोगातंकैः अभिभूतः सन् राज्ये च राष्ट्रे च यावद् अन्त:पुरे च मूर्छित: 4 राज्यं च आस्वदमानः प्रार्थयमानः स्पृहमाणः अभिलषमाणः आर्तदुःखार्तवशातः अर्द्धतृतीयानि वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः, स ततोऽनन्तरमुढत्य इहैव, मृगाग्रामे नगरे विजयस्य क्षत्रियस्य मृगाया देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः। 184] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय ' [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy