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________________ पदार्थ-तते णं-तदनन्तर। विजेहि य-वैद्यों के द्वारा। पडियाइक्खिए-प्रत्याख्यात-निषिद्ध किया गया। परियारगपरिचत्ते-परिचारकों-नौकरों द्वारा परित्यक्त-त्यागा गया। निविण्णोसहभेसज्जेऔषध और भैषज्य से निर्विण्ण-विरक्त, उपराम। सोलसरोगातंकेहि-१६ रोगातंकों से।अभिभूते समाणेखेद को प्राप्त हुआ। एक्काइ-एकादि राष्ट्रकूट। रज्जे य-राज्य में। रटे य-और राष्ट्र में। जाव-यावत्। अन्तेउरे य-अन्त:पुर-रणवास में। मुच्छिते-मूर्च्छित-आसक्त तथा। रजं च-राज्य और राष्ट्र का। आसाएमाणे-आस्वादन करता हुआ। पत्थेमाणे-प्रार्थना करता हुआ।पीहेमाणे-स्पृहा-इच्छा करता हुआ। अहिलसमाणे-अभिलाषा करता हुआ। अट्ट-आर्त-मानसिक वृत्तियों से दुःखित। दुहट्ट-दुःखार्त-देह से दुखी अर्थात् शारीरिक व्यथा से आकुलित / वसट्टे-वशार्त-इन्द्रियों के वशीभूत होने से पीड़ित / अड्ढाइज्जाइं वाससयाई-अढ़ाई सौ वर्ष / परमाउं-परमायु, सम्पूर्ण आयु। पालयित्ता-पालन कर / कालमासे-कालमास में। कालं किच्चा-काल-मृत्यु को प्राप्त कर। इमीसे-इस। रयणप्पहाए-रत्नप्रभा नामका पुढवीएपृथिवी-नरक में। उक्कोस-सागरोवमट्टितीएसु-उत्कृष्ट सागरोपम स्थिति वाले। नेरइएसु-नारकों में। णेरइयत्ताए-नारकरूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। तते णं-तदनन्तर / से-वह एकादि। अणंतंर-अन्तर रहित बिना अन्तर के। उव्वट्टित्ता-नरक से निकल कर / इहेव-इसी। मियग्गामे-मृगाग्राम नामक। णगरेनगर मे। विजयस्स-विजय नामक। खत्तियस्स-क्षत्रिय की। मियाए देवीए-मृगादेवी की। कुच्छिंसिकुक्षि में-उदर में। पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से। उववन्ने-उत्पन्न हुआ। ___मूलार्थ-तदनन्तर वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात[अर्थात् इन रोगों का प्रतिकार हमसे नहीं हो सकता, इस प्रकार कहे जाने पर ] तथा सेवकों से परित्यक्त, औषध और भैषज्य से निर्विण्ण-दुःखित, सोलह रोगातेंकों से अभिभूत, राज्य और राष्ट्र-देश यावत् अन्तःपुररणवास में मूर्छित आसक्त एवं राज्य और राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा-इच्छा, और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि आर्त-मनोव्यथा से व्यथित, दुःखार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशार्त-इन्द्रियाधीन होने से परतंत्र-स्वाधीनता रहित होकर जीवन व्यतीत करके 250 वर्ष की पूर्णायु को भोग कर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकी-रूप से उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वह एकादि का जीव भवस्थिति पूरी होने पर नरक से निकलते ही इसी मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगावती नामक देवी की कुक्षि-उदर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। 'टीका-पापकर्मों का विपाक-फल कितना भयंकर होता है यह एकादि राष्ट्रकूट की इस प्रकार की शोचनीय दशा से भलीभांति प्रमाणित हो जाता है, तथा आगामी जन्म में उन मन्द कर्मों का फल भोगते समय किस प्रकार की असह्य वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है, यह भी इस सूत्रलेख से सुनिश्चित हो जाता है। एकादि राष्ट्रकूट अनुभवी वैद्यों के यथाविधि उपचार से भी रोगमुक्त नहीं हो सका, उसके शरीरगत रोगों का प्रतिकार करने में बड़े-बड़े अनुभवी प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [185
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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