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________________ प्रधानरूप से राजकुमार मृगापुत्र के वृत्तान्त से प्रतिबद्ध होने के कारण प्रथम अध्ययन मृगापुत्रीय अध्ययन के नाम से विख्यात हुआ। इसी भांति अन्य अध्ययनों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। भगवन् ! दुःखविपाक नाम के प्रथमश्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों में से प्रथम के अध्ययन का क्या अर्थ है अर्थात् उस में किस विषय का प्रतिपादन किया गया है ? जम्बूस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मास्वामी प्रथम अध्ययनगत विषय का वर्णन आरम्भ करते हैं, जैसे कि मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे णामंणगरे होत्था वण्णओ। तस्स मियग्गामस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए चंदणपायवे णामं उज्जाणे होत्था।वण्णओ। सव्वोउय० वण्णओ।तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खाययणे होत्था चिरातीए, जहा पुण्णभद्दे। तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजए णामं खत्तिए राया परिवसति। वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया णामं देवी होत्था, अहीण०। वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए होत्था, जाति-अन्धे, जाति-मूए, जाति-बहिरे, जातिपंगुले, हुण्डे य वायवे। नत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा नासा वा केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिई आगितिमित्ते। तते णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सितेणं भत्तपाणएणं पडिजागरमाणी विहरति। __छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये मृगाग्रामो नाम नगरमभूत् / वर्णकः। तस्य मृगाग्रामस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे चन्दनपादपं नामोद्यानमभवत् / सर्वर्तु - क० वर्णकः। तत्र सुधर्मणो यक्षस्य यक्षायतनमभूत्, चिरादिकं, यथा पूर्णभद्रम्। तत्र मृगाग्रामे नगरे विजयो नाम क्षत्रियो राजा परिवसति / वर्णकः। तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य मृगा नाम देव्यभूत्, अहीन वर्णकः। तस्य विजयस्य क्षत्रियस्य पुत्रो मृगादेव्या आत्मजो मृगापुत्रो नाम दारकोऽभवत् / जात्यन्धो, जातिमूको जातिबधिरो, जातिपंगुलो, हुण्डश्च वायवः। न स्तस्तस्य दारकस्य हस्तौ वा पादौ वा कर्णौ वा अक्षिणी वा नासे वा। 1. अङ्गावयवानामाकृतिराकारः, किंविधेत्याह-आकृतिमात्रमाकारमात्रं नोचितस्वरूपेत्यर्थः। 2. स्त: के स्थान पर हैमशब्दानुशासन के "अत्थिस्त्यादिना // 8 // 3 // 148 / " इस सूत्र से 'अत्थि' यह प्रयोग निष्पन्न हुआ है। यहां अस्ति का अत्थि नहीं समझना। 120 ] [प्रथम श्रुतस्कंध श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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