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________________ अण्डों के भक्षण में यह बड़ा रस लेता था जिस के कारण इसे नरकों में भयंकर दुःख सहन करने पड़े। (4) शकट - सार्थवाह सुभद्र का पुत्र था। षण्णिक के भव में यह कसाई था मांसहारी था, देवदुर्लभ अनमोल मानव जीवन को दूषित प्रवृत्तियों में नष्ट कर इसने अपनी जीवन नौका को दुःखसागर में डुबो दिया था। (5) बृहस्पति - राजपुरोहित सोमदत्त का पुत्र था, राजपुरोहित महेश्वरदत्त के भव में यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्ण के हजारों जीवित बालकों के हृदयमांसपिण्डों को निकाल कर उन से हवन किया करता था, इस प्रकार के दानवी कृत्यों से इसने अपने भविष्य को अन्धकार-पूर्ण बना लिया था जिसके कारण इसे जन्म-जन्मान्तर में भटकना पड़ा।(६) नन्दीवर्धन - मथुरानरेश श्रीदाम का पुत्र था, दुर्योधन कोतवाल के भव में यह अपराधियों के साथ निर्दयता एवं पशुता पूर्ण व्यवहार किया करता था, उनके अपराधों का इसके पास कोई मापक (पैमाना) नहीं था, जो इसके मन में आया वह इसने उन पर अत्याचार किया। इसी क्रूरता से इसने भीषण पापों का संग्रह किया, जिसने इसे नारकीय दुखों से परिपीड़ित क़र डाला। (7) उम्बरदत्त - सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र था, वैद्य धन्वन्तरी के भव में यह लोगों को मांसाहार का उपदेश दिया करता था। मांस-भक्षणप्रचार इस के जीवन का एक अंग बन चुका था। जिस के परिणामस्वरूप नारकीय दुःख भोगने के अनन्तर भी इसे पाटलिषण्ड नगर की सड़कों पर भीषण रोगों से आक्रान्त एक कोढ़ी के रूप में धक्के खाने पड़े थे। (8) शौरिक- समुद्रदत नामक मछुवे (मच्छी मारने वाले) का * पुत्र था, श्रीद के भव में यह राजा का रसोईया था, मांसाहार इस के जीवन का लक्ष्य बन चुका था, अनेकानेक मूक पशुओं के जीवन का अन्त करके इसने महान पाप कर्म एकत्रित किया था, यही कारण है कि नरक के असह्य दुःख को भोगने के अनन्तर भी इसे इस भव में तड़पतड़प कर मरना पड़ा। (9) देवदत्ता - रोहीतक-नरेश पुष्यनन्दी की पट्टराणी थी। सिंहसेन के भव में इसने अपनी प्रिया श्यामा के मोह में फंस कर अपनी मातृतुल्य 499 देवियों को आग लगा कर भस्म कर दिया था। इस क्रूर कर्म से इस ने महान् पापकर्म उपार्जित किया। इस भव में भी इसने अपनी सास के गुह्य अंग में अग्नि तुल्य देदीप्यमान लोहदण्ड प्रविष्ट करके उस के जीवन का अन्त कर दिया। इस प्रकार के नृशंस कृत्यों से इसे दुःख सागर में डूबना पड़ा। (10) अञ्जू - महाराज विजयमित्र की अर्धांगिनी थी। पृथिवीश्री गणिका के भव में इसने सदाचार वृक्ष का बड़ी क्रूरता से समूलोच्छेद किया था, जिस के कारण इसे नरकों में दुःख भोगना पड़ा और यहां भी इसे योनिशूल जैसे भयंकर रोग से पीड़ित हो कर मरना पड़ा। प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध में मृगापुत्र आदि के नामों पर ही अध्ययनों का निर्देश किया गया है। क्योंकि दश अध्ययनों में क्रमशः इन्हीं दशों के जीवन वृत्तान्त की प्रधानता है। जैसे कि प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [119
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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