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________________ कर्म-अर्थात् जो किया जाए वह कर्म कहलाता है। कर्म शब्द के लोक और शास्त्र में अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं / लौकिक व्यवहार या काम धन्धे के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है, तथा खाना-पीना, चलना, फिरना आदि क्रिया का भी कर्म के नाम से व्यवहार किया जाता है, इसी प्रकार कर्मकांडी मीमांसक याग आदि क्रियाकलाप के अर्थ में, स्मार्त विद्वान् ब्राह्मण आदि चारों वर्गों तथा ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के लिए नियत किए गए कर्मरूप अर्थ में, पौराणिक लोग व्रत नियमादि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में, व्याकरण के निर्माता-कर्ता जिस को अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता हो अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता हो-उस अर्थ में, और नैयायिक लोग उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं और गणितज्ञ लोग योग और गुणन आदि में भी कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं परन्तु जैन दर्शन में इन सब अर्थों के अतिरिक्त एक पारिभाषिक अर्थ में उस का व्यवहार किया गया है, उस का पारिभाषिक अर्थ पूर्वोक्त सभी अर्थों से भिन्न अथच विलक्षण है। उस के मत में कर्म यह नैयायिकों या वैशेषिकों की भान्ति क्रियारूप नहीं किन्तु पौद्गलिक अर्थात् द्रव्यरूप है। वह आत्मा के साथ प्रवाहरूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव-जड़ द्रव्य है। जैन-सिद्धान्त के अनुसार कर्म के भावकर्म और द्रव्यकर्म ऐसे दो प्रकार हैं / इन की व्याख्या निम्नोक्त है- .. ... १-भावकर्म-मन, बुद्धि की सूक्ष्म क्रिया या आत्मा के रागद्वेषात्मक संकल्परूप परिस्पन्दन को भावकर्म कहते हैं। २-द्रव्यकर्म-कर्माणुओं का नाम द्रव्यकर्म है अर्थात् आत्मा के अध्यवसायविशेष से कर्माणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होने पर उन की द्रव्यकर्म संज्ञा होती है। द्रव्यकर्म जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है इस के समझने के लिए कुछ अन्तर्दृष्टि होने की आवश्यकता है।.. - जब कोई आत्मा किसी तरह का संकल्प-विकल्प करता हैं तो उसी जाति की कार्मण वर्गणाएं उस आत्मा के ऊपर एकत्रित हो जाती हैं अर्थात् उस की ओर खिंच जाती हैं उसी को जैन परिभाषा में आस्रव कहते हैं और जब ये आत्मा से सम्बन्धित हो जाती हैं तो इन की जैन मान्यता के अनुसार बन्ध संज्ञा हो जाती है। दूसरे शब्दों में आत्मा के साथ कर्मवर्गणा के अणुओं का नीर-क्षीर की भान्ति लोलीभाव-हिलमिल जाना बन्ध कहलाता है। बन्ध के-१-प्रकृतिबन्ध, 1. उत्क्षेपणापक्षेपणाकुंचनप्रसारणगमनानि पंचकर्माणि-अर्थात् उत्क्षेपण-ऊपर फैंकना, अपक्षेपणनीचे गिराना, आकुंचन-समेटना, प्रसारण-फैलाना और गमन-चलना, ये पांच कर्म कहलाते हैं। नैयायिकों के मत में द्रव्यादि सात पदार्थों में कर्म यह तीसरा पदार्थ है और वह उत्क्षेपणादि भेद से पांच प्रकार का होता है। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [33
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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