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________________ हमारा लौकिक व्यवहार भी ऊपर के विवेचन का समर्थक है। देखिए-कोई मित्रमण्डल गोष्ठी में संलग्न है, सामने से भीषण दुर्गन्ध से अभिव्याप्त एक कुष्ठी आ रहा है। मण्डल का नायक उसे देखते ही बोल उठता है, मित्रो ! मुख ढक लो। नायक के इतना कहने मात्र से साथी अपना-अपना नाक ढक लेते हैं। यह ठीक है नाक का मुख के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होने से मुख का ढका जाना अस्वाभाविक नहीं है, परन्तु कहने वाले का अभिप्राय नाक के ढक लेने से होता है, क्योंकि नाक ही गन्ध का ग्रहण करने वाला है। प्रश्न-यदि मुख-पद के लक्ष्यार्थ का ग्रहण न करके इसके शक्यार्थ का ग्रहण किया जाए तो क्या बाधा है ? उत्तर-प्रस्तुत प्रकरण में दुर्गन्ध से बचाव की बात चल रही है। गन्ध का ग्राहक घ्राण है। घ्राण को ढके या बान्धे बिना दुर्गन्ध से बचा नहीं जा सकता। परन्तु महारानी मृगादेवी नाक को बान्धने की बात न कह कर मुख बान्धने के लिए कह रही हैं / मुख गन्ध का ग्राहक न होने से महारानी का यह कंथन व्यवहार से विरुद्ध पड़ता है, अतः यहां तात्पर्य की उपपत्ति न होने के कारण लक्षणा द्वारा मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही होगा। दूसरी बात यह है कि यदि यहां मुख का शक्यार्थ ही अपेक्षित होता तो "मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि मुख को आवृत करने के लिए किसी बाह्य आवरण की आवश्यकता नहीं है, वहां तो ओंठ ही आवरण का काम दे जाते हैं। ऐसी एक नहीं अनेकोंबाधाओं के कारण यहां मुखपद से नाक का ग्रहण करना ही शास्त्रसम्मत है। प्रश्न-"मुहपोत्तियाए मुहं बन्धेह" इस पाठ में जो "बन्धेह" यह पद है, इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान गौतम के मुख पर मुख-वस्त्रिका नहीं थीं परन्तु उन्होंने महारानी मृगादेवी के कहने पर बांधी थी। पहले यह कहा जा चुका है कि भगवान् गौतम के मुखवस्त्रिका बन्धी हुई थी, यह परस्पर विरोध की बात क्यों ? उत्तर- सब से पहले जैन शास्त्रों में मुख-वस्त्रिका की मान्यता किस आधार पर है - इस पर विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। भगवती सूत्र में लिखा है .. पतितपावन भगवान् महावीर स्वामी अपनी शिष्यमण्डली सहित राजगृह नगर में विराजमान थे। भगवान् के प्रधान शिष्य अनगार गौतम एक बार भगवान् के चरणों में नमस्कार ___1. यहां पर मुखपोतिका-मुखवस्त्रिका शब्द एक वस्त्रखण्ड का बोधक है, जिस से धूलि, पसीना आदि पोंछने का काम लिया जाता है। आठ तहों वाली मुख-वस्त्रिका का यहां पर ग्रहण नहीं, क्योंकि उसका इतना बड़ा आकार नहीं होता कि दुर्गन्ध के दुष्परिणाम से पूर्णरूपेण बचने के लिए उसे ग्रीवा के पीछे ले जाकर गांठे देकर बाँध दिया जाए। सूत्रकार "मुहपोत्तियाए मुहं बंधेह" इस पाठ में "बन्धेह" पद का प्रयोग करते हैं। "बंधेह" का अर्थ होता है-बान्ध लें। प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [147
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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