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________________ हुई-मर गई। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय विजयमित्र सार्थवाह ने जहाज़ से गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य रूप चार प्रकार की पण्यवस्तुओं को लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया, परन्तु लवणसमुद्र में जहाज पर विपत्ति आने से विजयमित्र की उक्त चारों प्रकार की महामूल्य वाली वस्त्र, आभूषण आदि वस्तुएं जलमग्न हो गईं, और वह स्वयं भी त्राणरहित एवं शरणरहित होने से कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य-श्रेष्ठी और सार्थवाहों ने जब लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट तथा महामूल्य वाले क्रयाणक के जलमग्न हो जाने पर त्राण और शरण से रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वे हस्तनिक्षेप और बाह्य ( उस के अतिरिक्त) भांडसार को लेकर एकान्त स्थान में चले गए। सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज पर संकट आ जाने के कारण भांडसार के जलमग्न होने के साथ-साथ विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तब वह पतिवियोग-जन्य महान शोक से व्याप्त हुई, कुठाराहत-कुल्हाड़े से कटी हुई चम्पकवृक्ष की लता-शाखा की भांति धड़ाम से पृथिवी-तल पर गिर पड़ी। तदनन्तर वह सुभद्रा एक मुहूर्त के अनन्तर आश्वस्त हो तथा अनेक मित्र, ज्ञाति, यावत् सम्बन्धिजनों से घिरी हुई और रुदन, क्रन्दन तथा विलाप करती हुई विजयमित्र के लौकिक मृतक क्रिया-कर्म को करती है। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय पर लवणसमुद्र पर पति का गमन, लक्ष्मी का विनाश, पोत-जहाज का जलमग्न होना तथा पतिदेव की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न हुई कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गई। टीका-प्रत्येक मानव उन्नति चाहता है और उस के लिए वह यत्न भी करता है। फिर वह उन्नति चाहे किसी भी प्रकार क्यों न हो। एक जितेन्द्रिय साधु व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों के दमन एवं साधनामय जीवन व्यतीत करने में ही अपनी उन्नति मानता है। एक विद्यार्थी अपनी कक्षा में अधिक अंक-नम्बर लेकर पास होने में उन्नति समझता है। इसी प्रकार एक व्यापारी की उन्नति इसी में है कि उसे व्यापार-क्षेत्र में अधिकाधिक लाभ हो। सारांश यह है कि हर एक जीव इसी लक्ष्य को सन्मुख रखकर प्रयास कर रहा है। इसी विचार से प्रेरित हुआ विजयमित्र सार्थवाह आर्थिक उन्नति की इच्छा से अवसर देख कर विदेश जाने को तैयार हुआ, तदर्थ उसने अनेकविध गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य नाम की पण्य-बेचने योग्य वस्तुओं का संग्रह किया। .. . गिनती में बेची जाने वाली वस्तु गणिम कहलाती है, अर्थात् जिस वस्तु का भाव संख्या प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [297 [297
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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