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________________ वासना को कामध्वजा वेश्या के द्वारा पूरी करने लगा। प्रत्येक मानव की यह उत्कट इच्छा रहती है कि उस का समस्त जीवन सुखमय व्यतीत हो, इसके लिए वह यथाशक्ति श्रम भी करता है परन्तु कर्म का विकराल चक्र मानव के महान् योजनारूपंदुर्ग को आन की आन में भूमिसात् कर देता है। उज्झितक कुमार चाहता था कि कामध्वजा के सहवास में ही उस का जीवन व्यतीत हो और वह निरन्तर ही मानवीय विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करता रहे। परन्तु "सब दिन होत न एक समान" इस कहावत के अनुसार उज्झितक का वह सुख नष्ट होते कुछ भी देरी नहीं लगी। काम-वासना से वासित चित्त वाले मित्र नरेश ने कामध्वजा में आसक्त होते ही पांव के कांटे की तरह उसे-उज्झितक को वहां से निकलवा दिया और कामध्वजा पर अपना पूरा-पूरा अधिकार कर लिया। उज्झितक कुमार गरीब निर्धन अथच असहाय था यह सत्य है और यह भी सत्य है कि मित्र नरेश के मुकाबले में उसकी कुछ भी गणना नहीं थी। परन्तु वह भी एक मानव था और मित्र नरेश की भांति उस में भी मानवोचित हृदय विद्यमान था। प्रेम फिर वह शुद्ध हो या विकृत, यह हृदय की वस्तु है। उस में धनाढ्य या निर्धन का कोई प्रश्न नहीं रहता। यही कारण था कि कामध्वजा वेश्या ने एक निर्धन अथवा अनाथ युवक को अपने प्रेम का अतिथि बनाया और राजशासन में नियंत्रित होने पर भी वह उज्झितक कुमार का परित्याग न कर सकी। कामध्वजा के निवास-स्थान से बहिष्कृत किए जाने पर भी उज्झितक कुमार की कामध्वजागत मानसिक आसक्ति अथवा तद्गतप्रेमातिरेक में कोई कमी नहीं आने पाई। वह निरन्तर उस की प्राप्ति में यत्नशील रहता है, अधिक क्या कहें उसके मन को अन्यत्र कहीं पर भी किसी प्रकार की शांति नहीं मिलती। वह हर समय एकान्त अवसर की खोज में रहता है। विषयासक्त मानव के हृदय में अपने प्रेमी के लिए मोह-जन्य विषयवासना कितनी जागृत होती है, उसका अनुभव काम के पुजारी प्रत्येक मानव को प्रत्यक्षरूप से होता है। परन्तु इस विकृत प्रेम-विकृत राग के स्थान में यदि विशुद्ध प्रेम का साम्राज्य हो तो अन्धकार-पूर्ण मानव हृदय में कितना आलोक होता है, इसका अनुभव तो विश्वप्रेमी साधु पुरुष ही करते हैं, साधारण व्यक्ति तो उससे वंचित ही रहते हैं। ___ क़ामध्वजा वेश्या के ध्यान में लीन हुआ उज्झितक कुमार उसके असह्य वियोग से 1. इस विषय में कविकुलशेखर कालीदास की निम्नलिखित उक्ति भी नितान्त उपयुक्त प्रतीत होती कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं, दुःखमेकान्ततो वा। नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा, चक्रनेमिक्रमेण॥ [मेघदूत] प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [307
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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