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________________ पुण्य के उदय में आने से वह एक उत्तम राजकुल में जन्मा तो इस में कुछ भी विसंवाद नहीं ___ शास्त्रों में लिखा है कि शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म जीव के साथ होते हैं, जो कि अपने-अपने समय पर उदय में आकर फलोन्मुख हो जाते हैं। आज भी प्रत्यक्ष देखने में आता है कि एक व्यक्ति राजकुल में जन्म लेता है, राजा बनता है, परन्तु कुछ ही समय के बाद वह दर-दर की खाक छानता है और खाने को पेटभर अन्न भी प्राप्त नहीं कर पाता / यही तो कर्मगत वैचित्र्य है, जिसे देख कर कभी-कभी विशिष्ट बुद्धिबल वाले व्यक्ति भी आश्चर्य मुग्ध हो जाते हैं। अतः दुर्योधन के जीव का नन्दिषेण के रूप में अवतरित होना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। "-एयारूवे जाव समुप्पजित्था-" यहां का जाव-यावत् पद "-अज्झत्थिते कप्पिए चिन्तिए पत्थिए मणोगए संकप्पे-" इन पदों का परिचायक है। इन का अर्थ द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। तथा –भीए 4- यहां पर दिए गए 4 के अंक से "-तत्थे उव्विग्गे संजातभए-" इन पदों का ग्रहण करना चाहिए। इन का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। "-करयल जाव एवं-" यहां के बिन्दु तथा जाव-यावत् पद से संसूचित पाठ को पीछे लिखा जा चुका है। तथा "-रज्जे जाव मुच्छिते 4-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-रटे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अन्तेउरे य-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। राज्य शब्द बादशाहत का बोधक है। किसी महान् देश का नाम राष्ट्र है। कोष खज़ाने को कहते हैं। धान्यगृह अथवा भाण्डागार का नाम कोष्ठागार है। बल सेना को कहते हैं। वाहन शब्द रथ आदि यान और जहाज़, नौका आदि के लिए प्रयुक्त होता है। पुर नगर का नाम है। अन्तःपुर रणवास को कहते हैं। तथा-मुच्छिते 4- यहां दिए गए 4 के अंक से "-गिद्धे, गढिए, अझोववन्ने-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ द्वितीय अध्ययन में दिया गया है। "-आसुरुत्ते जाव साहट्ट-" यहां पठित जाव-यावत् पद से "-रुद्वे, कुविए,चण्डिक्किए तिवलियं भिउडिं निडाले-" इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। आसुरुत्ते-इत्यादि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में कर दिया गया है। 1. तृतीय अध्ययन में अभग्नसेन के सम्बन्ध में इसी प्रकार के प्रश्न का विस्तृत उत्तर दिया जा चुका है। अधिक जिज्ञासा रखने वाले पाठक वहां देख सकते हैं। अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का नाम है जबकि प्रस्तुत में नन्दिषेण का 546 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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