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________________ अनिष्ट ही अनिष्ट दिखाई देने लगा। फलस्वरूप वह घातक के स्थान में रक्षक बना। नीतिकारों ने "-रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि-" अर्थात् पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं, यह सत्य ही कहा है। तात्पर्य यह है कि पुण्य के प्रभाव से चित्र स्वयं भी बचा और उसने महाराज श्रीदाम को भी बचाया। ____ चित्र की बात को सुनकर पहले तो श्रीदाम नरेश एकदम चमके, पर थोड़े ही समय के बाद कुछ विचार करने पर उन्हें चित्र की बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत हुई। कारण कि जब से राजकुमार युवराज बना है तब से लेकर उसके व्यवहार में बहुत अन्तर दिखाई देता था और उसकी ओर से श्रीदाम नरेश सदा ही शंकित से बने रहते थे। चित्र की सरल एवं निर्व्याज उक्ति से महाराज श्रीदाम बहुत प्रभावित हुए तथा अपने और नन्दिषेण के कर्त्तव्य का तटस्थ बुद्धि से विचार करते हुए वे एकदम क्रोधातुर हो उठे और फलस्वरूप नीतिशास्त्र के नियमानुसार उन्होंने उसे वध कर डालने की आज्ञा प्रदान करना ही उचित समझा। _ पाठकों को स्मरण होगा कि पारणे के निमित्त मथुरा नगरी में भिक्षा के लिए पधारे हुए गौतम स्वामी ने राजमार्ग में जिस वध्य व्यक्ति को राजपुरुषों के द्वारा भयंकर दुर्दशा को प्राप्त होते हुए देखा था, तथा भिक्षा लेकर वापिस आने पर उस व्यक्ति के विषय में जो कुछ प्रभु महावीर से पूछा था, उसी का उत्तर देने के बाद प्रभु वीर कहते हैं कि गौतम ! यह है उस व्यक्ति के पूर्वभवसहित वर्तमान भव का परिचय, जो कि वर्तमान समय में अपने परम उपकारी पिता का अकारण घात करके राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने की नीच चेष्टा कर रहा था। तात्पर्य यह है कि जिन अधमाधम प्रवृत्तियों से यह नन्दिषेण नामक व्यक्ति इस दयनीय दशा का अनुभव कर रहा है यह उसी का वृत्तान्त तुम को सुनाया गया है। .. प्रश्न-दुर्योधन कोतवाल के क्रूरकर्मों का फल यह हुआ कि उसे नरक में उत्पन्न होना पड़ा परन्तु नरक से निकल कर भी तो उसे किसी बुरे स्थान में ही जन्म लेना चाहिए था, पर वह जन्म लेता है एक उत्तम घराने में अर्थात् श्रीदाम नरेश के घर में, ऐसा क्यों ? . उत्तर-बुरे स्थान में तो वह मनुष्य जन्म लेता है, जिसने पूर्व जन्म में बुरे ही कर्म किए हों, अथवा अभी जिसके बुरे कर्म भोगने शेष हों। यदि किसी ने बुरे कर्मों का फल भोग लिया हो तब उसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह बुरे स्थान में ही जन्म ले। दुर्योधन ने बुरे कर्म किए, उन का फल उसने छठी नरक में नारकीरूप में प्राप्त किया, वह भी एक दो वर्ष नहीं किन्तु बाईस सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक। कहने का तात्पर्य यह है कि जब उसके बुरे कर्मों का अधिक मात्रा में क्षयोपशम हो गया अर्थात् जो कर्म उदय को प्राप्त हुए, उन का क्षय और जो उदय में नहीं आए उन का उपशमन हो गया, अथवा उसके पूर्वकृत किसी अज्ञात प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [545
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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