________________ निसर्गार्थमुत्क्षिप्तैः बाणैः, समुल्लासियाहि-समुल्लसिताभिः, दामाहि-पाशकविशेषैः,दाहाहिंइति क्वचिद्-तत्र प्रहरणविशेषैर्दीर्घवंशाग्रन्य-स्तदात्ररूपैः, ओसारियाहि-प्रलम्बिताभिः, उरुघंटाहि-जंघाघंटाभिः, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं द्रुत-तूर्येण वाद्यमानेन, "महया उक्किट्ठ' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-"महया उक्किट्ठसीहनायबोल-कलकलरवेणं"तत्रोत्कृष्टश्चानन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः, बोलश्च वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च व्यक्तवचनः स एव तल्लक्षणो यो रवः स तथा तेन "समुद्दरवभूयं पिव"-जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थः "गगनमंडलं" इति गम्यते। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है (1) भरित-हस्तरूप पाश (जाल) से गृहीत अर्थात् हस्तबद्ध, (2) फलअस्फटिक मणि के समान, (3) निष्कृष्ट-म्यान से बाहर हुई, (4) असि-तलवार, (5) अंसागत-पृष्ठभाग पर बांधने के कारण कन्धे पर रखा हुआ, (6) तूण-इषुधि-तीर रखने का थैला, (7) सजीव-प्रत्यञ्चा (डोरी) से युक्त, (8) धनुष-फलदार तीर फैंकने का वह अस्त्र जो बांस या लोहे के लचीले डण्डे को झुकाकर उसके दोनों छोरों के बीच डोरी बांधकर बनाया जाता है, (9) समुत्क्षिप्त-लक्ष्य पर फैंकने लिए धनुष पर आरोपित किया गया, (१०)शर-धार वाला फल लगा हुआ एक छोटा अस्त्र जो धनुष की डोरी पर खींच कर छोड़ा जाता है-बाण (तीर), (11) समुल्लासित-ऊंची की. गई, (12) दाम-पाशक विशेष अर्थात् फंसाने की रस्सियां अथवा शस्त्रविशेष। . वृत्तिकार के मत से किसी-किसी प्रति में "दामाहि" के स्थान पर "दाहाहिं" ऐसा पाठ भी पाया जाता है। उस का अर्थ है-"वे प्रहरणविशेष जो एक लंबे बांस पर लगे हुए होते हैं- ढांगे वगैरह जो कि पशु चराने वाले ग्रामीण लोग जंगल में पशु चराते हुए अपने पास वृक्षों की शाखाएं काटने या किसी वन्य जीव का सामना करने के लिए रखते हैं। (13) लम्बिता-प्रलंबित-लटकती हुई, (14) अवसारिता-हिलाई जाने वाली अथवा ऊपर को सरकाई जाने वाली, (15) क्षिप्रतूर्य-शीघ्र-शीघ्र बजाया जाने वाला वाद्य, (16) वाद्यमान-बजाया जा रहा। ___ "महया उक्किट्ठ० जाव समुद्दरव" यहां पठित जाव-यावत् पद से सिंहनाद के, बोल के, कलकल के शब्दों से-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। उत्कृष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है (1) उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि। (2) सिंहनाद-सिंह का नाद-गर्जना। (3) बोल-वर्णों की अव्यक्त ध्वनि अर्थात् जिस आवाज में वर्गों की प्रतीति न हो। (4) कलकल-वह ध्वनि जिस में वर्गों की अभिव्यक्ति-प्रतीति होती है। 370 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध