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________________ डालना कि जिस से वह औरों की निगाह में बद्ध प्रतीत न हो सके परन्तु वह स्वयं को बद्ध समझता रहे / यही इस कला का उद्देश्य है। (70) मारण-कला-केवल मन्त्रों की सिद्धि और दृष्टिबल से बिना किसी भी प्रकार का किसी पुरुष-विशेष से युद्ध किए, यहां तक कि बिना उसे देखे भाले केवल उस का नाम और स्थान मालूम कर एवं बिना किसी भी प्रकार के शस्त्रों का उस पर प्रयोग किए उस के सिर को धड़ से अलग कर देना या अन्य किसी भी प्रकार से उसे मार गिराना इस कला का काम है। (७१)स्तम्भन-कला-किसी व्यक्ति विशेष से अपने पराए किसी वैर का बदला लेने के लिए उसे किसी निश्चित काल तक के लिए स्तम्भित कर रखना इस कला से लोग जान पाते हैं। (72) संजीवन-कला-किसी मृतप्राय या मृतक दिखने वाले व्यक्ति को जो अकाल में ही किसी कारण-विशेष से मृत्यु को प्राप्त होता दिखाई दे रहा हो, मन्त्र, तन्त्र, यन्त्र आदि विधियों के बल या किसी भी प्रकार की संजीवनी जड़ी को उस के मृतप्राय शरीर से स्पर्श करा कर उसे पुनर्जीवित कर देना इस कला द्वारा लोग जान पाते हैं। शास्त्रों में 72 कलाएं पुरुषों की मानी जाती हैं, किन्तु प्रकृत सूत्र में उन कलाओं का एक नारी में सूचित करने का अर्थ है उस नारी के महान् पांडित्य को अभिव्यक्त करना, और टीकाकार का कहना है कि प्रायः पुरुष ही इन कलाओं का अभ्यास करते हैं, स्त्रियां तो प्रायः इन का ज्ञान मात्र रख सकती हैं। लेखाद्याः शकुनरुतपर्यन्ता गणित-प्रधाना कला प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः, स्त्रीणां तु विज्ञेया एव प्राय इति। "चउसट्ठि-गणिया-गुणोववेया-चतुष्पष्टिगणिका-गुणोपेता"-अर्थात् वह कामध्वजा गणिका, कामसूत्र वर्णिक गणिका के 64 गुण अपने में रखती थी। वात्स्यायन कामसूत्र . 1. यह कला वर्णन स्वर्गीय, जैनदिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, पण्डित श्री चौथमल जी महाराज द्वारा विरचित "भगवान् महावीर का आदर्श-जीवन" नामक ग्रन्थ से उद्धृत किया गया है। शाब्दिक रचना में कुछ आवश्यक अन्तर रखा गया है और आवश्यक एवं प्रकरणानुसारी भाव ही संकलित किए गए हैं। कहीं वर्णन में स्वतन्त्रता से भी काम लिया गया है। 2. इस वर्णन से प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री अभयदेव सूरि के मत में 72 कलाओं में से प्रथम की लेखन-कला है और अन्तिम कला का नाम शकनरुतकला है, परन्तु हमने जिन कलाओं का वर्णन ऊपर किया है, उन में पहली तो वृत्तिकार की मान्यतानुसार है परन्तु अन्तिम कला में भिन्नता है। इस का कारण यह है कि कलाओं का वर्णन प्रत्येक ग्रन्थ में प्रायः भिन्न-भिन्न रूप से पाया जाता है। ऐसा क्यों है, यह विद्वानों के लिए विचारणीय प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [237
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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