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________________ भर कर निर्निमेष दृष्टि से दर्शन करते हुए उनकी पर्युपासना का लाभ लेने लगे, तथा प्रभुदर्शनों की प्यासी जनता ने भी प्रभु के यथारुचि दर्शन कर अपनी चिरंतन पिपासा को शान्त करने का पूरा-पूरा सौभाग्य प्राप्त किया। ___आज देवरमण उद्यान की शोभा भी कहे नहीं बनती। वीर प्रभु की कैवल्य विभूति से अनुप्राणित हुए उस में आज एक नए ही जीवन का संचार दिखाई देता है। उसका प्रत्येक वृक्ष, लता और पुष्प मानो हर्षातिरेक से प्रफुल्लित हो उठा है, तथा प्रत्येक अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सजीवता अथच सजगता आ गई है। दर्शकों की आंखें उसकी इस अपूर्व शोभाश्री को निर्निमेष दृष्टि से निहारती हुई भी नहीं थकतीं। अधिक क्या कहें, वीर प्रभु के आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त करने वाले इस देवरमणोद्यान की शोभाश्री को निहारने के लिए तो आज देवतागण भी स्वर्ग से वहां पधार रहे हैं। ___तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उनके दर्शनार्थ देवरमण उद्यान में उपस्थित. . हुई जनता के समुचित स्थान पर बैठ जाने के बाद उसे धर्म का उपदेश दिया। उपदेश क्या था? साक्षात् सुधा की वृष्टि थी, जो कि भवतापसन्तप्त हृदयों को शान्ति-प्रदान करने के लिए की गई थी। उपदेश समाप्त होने पर वीर प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दना तथा नमस्कार करके नागरिक और महाराज महाचन्द्र आदि सब अपने-अपने स्थानों को चले गए। . तत्पश्चात् संयम और तप की सजीव मूर्ति श्री गौतम स्वामी भगवान् से आज्ञा लेकर पारणे के निमित्त भिक्षा के लिए साहंजनी नगरी में गए। जब वे राजमार्ग में पहुंचे तो क्या देखते हैं कि हाथियों के झुंड, घोड़ों के समूह और सैनिक पुरुषों के दल के दल वहां खड़े हैं। उन सैनिकों के मध्य में स्त्रीसहित एक पुरुष है, जिस के कर्ण, नासिका कटे हुए हैं, वह अवकोटक-बन्धन से बंधा हुआ है, तथा राजपुरुष उन दोनों को अर्थात् स्त्री और पुरुष को कोड़ों से पीट रहे हैं, तथा यह उद्घोषणा कर रहें हैं कि इन दोनों को कष्ट देने वाले यहां के राजा अथवा कोई अधिकारी आदि नहीं है, किन्तु इन के अपने दुष्कर्म ही इन्हें यह कष्ट पहुंचा रहे हैं। राजकीय पुरुषों के द्वारा की गई उस स्त्री पुरुष की इस भयानक तथा दयनीय दशा को देख कर करुणा के सागर गौतम स्वामी का हृदय पसीज उठा और उनकी इस दुर्दशा से वे बहुत दुःखित भी हुए। भगवान् गौतम सोचने लगे कि यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा किन्तु फिर भी श्रुत ज्ञान के बल से जितना उनके सम्बन्ध में मुझे ज्ञान है उस से तो यह प्रतीत होता है कि यह व्यक्ति नरक के समान ही यातना-दुःख को प्राप्त हो रहा है। अहो ! यह कितनी कर्मजन्य बिडम्बना है ! इत्यादि विचारों से युक्त हुए वापिस देवरमण उद्यान में आए, आकर प्रभु को 446 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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