________________ इसी प्रकार तीसरे अध्ययन का वर्णन करने के अनन्तर सूत्रकार ने एवं खलु जम्बू! ' समणेणं भगवया महावीरेणंजाव संपत्तेणं सुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।त्ति बेमि। अर्थात् हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसंप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के तीसरे अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ प्रतिपादन किया है, इस प्रकार मैं कहता हूं-यह कह कर निक्षेप या उपसंहार संसूचित कर दिया है। सूत्रकार ने एक स्थान पर इन दोनों का निरूपण करके अन्यत्र इन के (उपक्रम और उपसंहार के) सूचक क्रमशः उक्खेवो-उत्क्षेपः, और निक्लेवो-निक्षेपः ये दो पद दे दिए हैं, जिन में उक्त अर्थ का ही समाहार-संक्षेप है। तीसरे अध्ययन का पदार्थ भी प्रथम अध्ययन के समान ही है। केवल नाम और स्थानादि का भेद है। प्रथम अध्ययन का मुख्य नायक सुबाहुकुमार है जब कि तीसरे का सुजातकुमार। इस के अतिरिक्त पूर्वभव में ये दोनों सुमुख और ऋषभदत्त गाथापति के नाम से विख्यात थे। अर्थात् सुबाहुकुमार सुमुख गाथापति के नाम से प्रसिद्ध था और सुजात ऋषभदत्त के नाम से प्रख्यात था। इसी तरह सुबाहुकुमार को तारने वाले सुदत्तमुनि और सुजात के उद्धारक पुष्पदत्त हुए। इस के सिवा माता-पिता के नाम को छोड़ कर बाकी सारा जीवनवृत्तान्त दोनों का जन्म से लेकर मोक्षपर्यन्त एक ही जैसा है। अर्थात्-गर्भ में आने पर माता का स्वप्न में मुख में प्रवेश करते हुए सिंह को देखना, जन्म के बाद बालक का शिक्षण प्राप्त करना, युवा होने पर राजकन्याओं से विवाह करना। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पधारने पर उन से पञ्चाणुव्रतिक गृहस्थधर्म की दीक्षा लेना। उन के विहार करने के अनन्तर पौषधशाला में धर्माराधन करते हुए मन में शुभ विचारों का उद्गम होना और फलस्वरूप भगवान् के दोबारा पधारने पर मुनिधर्म की दीक्षा लेना और संयम का यथाविधि पालन करने के अनन्तर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होना तथा वहां से च्यव कर फिर मनुष्य भव को प्राप्त करना और इसी प्रकार आवागमन करते हुए अन्त में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो कर संयम व्रत के सम्यग् अनुष्ठान से कर्मबन्धनों को तोड़ कर सिद्धपद-मोक्षपद को प्राप्त करना, आदि में अक्षरशः समानता है। __-उप्पन्ने जाव सिज्झिहिइ ५-यहां पठित जाव-यावत् पद गौतम स्वामी का वीर प्रभु से-सुजातकुमार आपश्री के चरणों में दीक्षित होगा कि नहीं -ऐसा प्रश्न पूछना तथा भगवान् महावीर स्वामी का उत्तर देना और अन्त में प्रभु का विहार कर जाना। सुजात कुमार का तेला पौषध करना, उस में साधु होने का विचार करना, भगवान् का वीरपुर नामक नगर. में आना, सुजातकुमार का दीक्षित होना, संयमाराधन से उस का मृत्यु के अनन्तर देवलोक में 966 ] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कंध